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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विदा, मेरे भैया! अलविदा, मेरी बहना! १९९ चारों रानियाँ पुलकित हो उठीं। वे रत्नजटी के पास से उठकर सीधी पहुँची सुरसुंदरी के कक्ष में। सुरसुंदरी अभी-अभी अपना ध्यान पूर्ण कर के वस्त्र-परिवर्तन कर रही थी। उसने रानियों का स्वागत किया। सब बैठ गये। 'बहन, तुम्हारे भैया ने आज पक्का निर्णय कर लिया है...।' 'क्या निर्णय?' 'तुम्हें ससुराल पहुँचा देना है। अब दो दिन का ही अपना साथ है... फिर तो...' मणिप्रभा के स्वर में कंपन था । सुरसुंदरी मौन रही... उसके चेहरे पर विषाद की बदली तैरने लगी। 'दीदी... फिर कभी अपने भाई को याद करके यहाँ आओगी न? हमें भूला तो नहीं दोगी?' रविप्रभा का स्वर वेदना से छलकने लगा था। 'भाभी... जैसे भाई को नहीं भूला सकूँगी जिंदगी भर... वैस तुम जैसे मेरी प्यारी-प्यारी भाभियों को भी नहीं भूला पाऊँगी... पलभर भी!' सुरसुंदरी भी सिसकने लगी थी। 'दीदी... हमारी कुछ भेंट स्वीकारोगी ना?' 'यहाँ आकर तुम्हारा सब कुछ मैंने स्वीकारा है... मैंने क्या नहीं लिया तुमसे? और तुमने क्या नहीं दिया मुझे? सब कुछ दिया... मैंने सब कुछ लिया । अब और बाकी क्या रह गया है? तुम्हारा इतना प्यार मिलने के बाद और क्या मैं चाहूँगी?' __'दीदी... ऐसी बातें मत करो... हमने तो तुम्हें दिया भी क्या है? अब हम चारों भाभियाँ तुम्हे एक-एक विद्याशक्ति देंगी। पहली विद्या है रूपपरिवर्तिनी। उस विद्या से तुम अपना मनचाहा रूप बना सकोगी। दूसरी विद्या है अदृश्यकरणी। इस विद्या के बल पर तुम चाहो तब अदृश्य हो पाओगी। तुम्हें कोई देख भी नहीं पाएगा। तीसरी विद्या पराविद्याच्छेदिनी के बल पर अन्य कोई ऐरी-गैरी विद्याशक्ति या मंत्रशक्ति तुम्हारा कुछ नहीं बिगाड़ सकेगी। चौथी विद्या है कुंजरशतबलिनी। इस विद्या के स्मरण से तुम्हारे शरीर में सौ हाथी जितनी ताकत उभरेगी।' 'वाह यह, तो अद्भुत है...' सुरसुंदरी रोमांचित हो उठी! 'तुम्हारे भैया तुम्हें ये सारी विद्याएँ सिखाएँगे।' For Private And Personal Use Only
SR No.009637
Book TitlePrit Kiye Dukh Hoy
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2009
Total Pages347
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size2 MB
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