SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 212
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २०० विदा, मेरे भैया! अलविदा, मेरी बहना! सुरसुंदरी गद्गद् हो उठी। ये सभी विद्याएँ उसके वास्ते अत्यंत उपयोगी हो सकेंगी। चूँकि बेनातट नगर में जाने के पश्चात् भी जब तक अमरकुमार से मिलना न हो, तब तक तो उसे अकेले रहना था। अपने शील की रक्षा करना था... और फिर उसकी भीतरी इच्छा अच्छा-सा राज्य पाने की भी थी। चूँकी अमर की चुनौती पुरी जो करनी थी। इन चारों विद्याओं की प्राप्ति से उसे अपनी महत्त्वाकांक्षा साकार होती दिखी। चारों भाभियों के प्रति सुरसुंदरी भावविभोर हो उठी। 'तुमने तो मुझे मेरू जैसे उपकार के भार-तले दबा दिया।' नहीं... ऐसा मत बोलो, दीदी... यह तो हम क्या दे रहे हैं? कुछ भी नहीं! हम कोई तुम्हारे पर एहसान थोड़े ही कर रहे हैं? तुमने हमारा जो उपकार किया है... हमें जो जीने का सच्चा एवं अच्छा रास्ता दिखाया है... तत्त्वचिंतन दिया है...' सुरसुंदरी ने मणिप्रभा के मुँह पर अपनी हथेली ढांपते हुए कहा : 'रहने भी दो... भाभी! आज ऐसी बातें नहीं करना है। आज तो ऐसा करें... एकाध तीर्थ की यात्रा कर आएँ...! फिर न जाने कब मिलना हो? कब साथ रहना हो? यदि भैया को अनुकूलता हो तो। तुम यहीं बैठो... मैं भैया से पूछ कर आती हूँ...।' ___ सुरसुंदरी उठकर शीघ्र ही रत्नजटी के कमरे में पहुँची। रत्नजटी ने खड़े होकर सुरसुंदरी का स्वागत किया। सुरसुंदरी ने रत्नजटी के सामने देखा। रत्नजटी का उदासी एवं आँसुओं से भीगा चेहरा देखा... दुःखी-दुःखी हो उठी सुरसुंदरी! "भैया... यदि तुम्हे अनुकूल हो तो हम सम्मेतशिखर तीर्थ की यात्रा कर आएँ।' 'ज़रूर बहन... मुझे अनुकूल हीं है।' 'तो तुम तैयार हो... मैं भाभियों को तैयार करती हूँ।' सुरसुंदरी रत्नजटी के कक्ष में से निकलकर अपने कमरे में आयी... रानियों से तैयारी करने को कहा और स्वयं भी तैयारी में लग गयी। रत्नजटी ने अपना विमान तैयार किया। चारों रानियाँ एवं सुरसुंदरी को विमान में बिठाया... और रत्नजटी ने विमान को सम्मेतशीखर की ओर गतिशील किया। For Private And Personal Use Only
SR No.009637
Book TitlePrit Kiye Dukh Hoy
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2009
Total Pages347
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy