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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir फिर सपनों के दीप जले ! १०४ सुरसुंदरी ने सात-सात दिन से अनाज खाया नहीं था । केवल फलाहार ही किया था । श्रेष्ठी की भोजन की बात सुनकर उसकी भूख भड़क उठी । जल्दीजल्दी स्नानघर में घुसकर उसने स्नान किया एवं वस्त्र - परिवर्तन करके स्वस्थ होकर बाहर निकली। थोड़ी ही देर में श्रेष्ठी खुद आकर सुरसुंदरी को भोजन करने के लिए ले गया। बहुत आदर व आग्रह करके खाना खिलाया और कहा : 'अब तू निश्चिंत मन से आराम करना। मैं भी अपने कमरे में आराम करूँगा । कोई भी काम हो तो मुझे बुला लेना ।' सुरसुंदरी अपने कमरे में गयी... कमरे का दरवाजा बंद किया और पलंग पर लेट गयी... भोजन करने के बाद सोने की आदत सुरसुंदरी को थी नहीं । उसे नींद नहीं आयी। सोचने लगी । दिमाग में विचारों का काफिला उतरने लगा : 'मैं अनजान... यह श्रेष्ठी भी अनजान । फिर भी मुझपर कितनी दया की इसने ? मेरी कितनी देखभाल कर रहा है? अच्छा हुआ जो मुझे ऐसा सुंदर साथ मिल गया... वर्ना ! अब तो कुछ ही दिनों में अमरकुमार से मिलना भी हो जाएगा। वह तो मुझे जिंदा देखकर भड़क उठेगा। नहीं... नहीं ... शर्मिंदा हो जाएगा। हालाँकि पीछे से तो उसको अपनी गलती का ख्याल आया ही होगा । गुस्सा उतर जाने के बाद आदमी को अपनी गलती का अहसास होता है अक्सर। पर क्या वह अपनी गलती मानेगा सही ? चाहे ना माने! मैं उसे ज़रा भी कटुवचन नहीं कहूँगी, न हीं ताने करूँगी । जैसे कुछ हुआ ही नहीं, ऐसा ही व्यवहार करूँगी । ' 'ओह... मैंने इस श्रेष्ठी का परिचय तो पूछा ही नहीं । अरे..... इसका नाम भी नहीं पूछा ! वह मुझे कितनी अविवेकी समझेगा ? हाँ, पर मैं भी स्वार्थी ही हूँ न? मेरा काम बन गया... तो नाम पूछने जितना विवेक भी भूल गयी । अब पूछ लूँगी.... और उससे कोई काम हो तो करने के लिए भी माँग लूँगी । आदमी तो भला लगता है । नवकार मंत्र के प्रभाव से यह सब कितना अनुकूल मिलता जा रहा है? अशरण के लिए शरणरूप यह महामंत्र मेरे तो प्राणों का सहारा है। सचमुच उन साध्वीमाता सुव्रता ने मुझपर कितना बड़ा उपकार किया है? उन्होंने मुझे चिंतामणि रत्न दिया है।' विचार ही विचार में वह कब सो गयी... उसका उसे ख्याल ही नहीं रहा । जब वह जागी तब दिन का तीसरा प्रहर पूरा होने आया था। वह आननफानन खड़ी हुई। वस्त्र वगैरह ठीक किये और दरवाजा खोला.... उसे ताज्जुब For Private And Personal Use Only
SR No.009637
Book TitlePrit Kiye Dukh Hoy
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2009
Total Pages347
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size2 MB
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