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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir फिर सपनों के दीप जले! १०५ हुआ। वह दिन में कितनी सो गयी थी? चारों और सागर फैला हुआ था... उछलती मौजें... और पानी की गर्जना। __यक्षद्वीप पर रहकर सात दिन में उसने सागर से दोस्ती कर ली थी। सागर को देखने में उसे आनंद मिलता था। वह अपलक निहारती रही सागर के अनंत-असीम फैलाव को। उसके पीछे श्रेष्ठी धनंजय कब का आकर खड़ा हो गया था। सुरसुंदरी को पता नहीं था। __'क्यों सिंहलद्वीप की याद सता रही है क्या?' श्रेष्ठी ने हँसते हुए पूछा तो सुरसुंदरी चौंकी | झेंपते हुए उसने पीछे मुड़कर देखा | धनंजय हँस रहा था। उसने सुंदर कपड़े पहन रखे थे। उसके कपड़ो से खूशबू आ रही थी। अभी तो बहुत दिनों की यात्रा करनी है। तब कही जाकर सिंहलद्वीप पहुँचेंगे।' 'ओह, पर मैं आपका नाम तो पूछना ही भूल गयी।' 'मुझे लोग श्रेष्ठी धनंजय नाम से जानते हैं। 'आपकी जन्मभूमि?' 'मैं अहिछत्रा नगरी का निवासी हूँ।' 'अच्छा, वह तो हमारी चंपा से ज्यादा दूर नहीं है।' 'बिलकुल ठीक है, मैंने चंपा भी देखी है। व्यापार के सिलसिले में चंपा का दौरा किया था।' 'तब तो आप सिंहलद्वीप भी शायद व्यापार के लिए ही जा रहे होंगे?' 'हाँ... व्यापार का बहाना तो है ही। वैसे दूर-दराज के अनजान देशपरदेश को देखने का शौक भी मुझे बहुत है।' धनंजय की आँखे बराबर सुरसुंदरी की गदरायी हुई देह पर फिसल रही थी। स्नान वगैरह के बाद उसका अछूता रूप और निखर गया था। अब तो उसका मन खुशी था, तो शरीर पर भी खुशी लालिमा बनकर उभर रही थी। सुरसुंदरी के पारदर्शी कपड़ों में से छलके जोबन में धनंजय का पापी मन लार टपकाता हुआ झाँक रहा था। सुरसुंदरी को इसका तनिक भी अंदाजा नहीं लग पाया था। दुनियादारी से अनजान भोली हिरनी-सी सुरसुंदरी बेचारी धनंजय को अपने पिता जैसा समझकर उससे खुलकर बोल रही थी, पर धनंजय! उसकी शिकारी आँखे सुरसुंदरी के सौंदर्य की प्यासी हुई जा रही थी। For Private And Personal Use Only
SR No.009637
Book TitlePrit Kiye Dukh Hoy
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2009
Total Pages347
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size2 MB
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