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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir फिर सपनों के दीप जले! १०३ यक्षराज ने सुरसुंदरी के मस्तक पर हाथ रखा और सुरसुंदरी प्रणाम करके समुद्र किनारे की ओर चली। श्रेष्ठी सुरसुंदरी की राह देख रहा था। ___ 'मुझे आने में थोड़ी देर हो गयी... नहीं? क्षमा करना।' सुरसुंदरी ने श्रेष्ठी से क्षमा माँगी। 'नहीं... नहीं... कोई देर नहीं हुई। वैसे अभी-अभी तो मेरे आदमी भी पानी भर कर जहाज़ में चढ़े हैं। अब हम जहाज़ में चढ़ जाएँ। ताकि समय पर यहाँ से निकल जाएँ।' सुरसुंदरी को जहाज़ में चढ़ाते समय श्रेष्ठी ने उसकी बाँह पकड़कर सहारा दिया। सुरसुंदरी के शरीर का स्पर्श होते ही श्रेष्ठी सिहर उठा। सुरसुंदरी तो उत्साह में थी। उसके दिमाग में अमरकुमार से मिलने की तमन्ना उछल रही थी। उसे ख्याल भी नहीं आया... श्रेष्ठी के स्पर्श का | वह जहाज़ में चढ़ गयी। उसके पीछे श्रेष्ठी भी चढ़ गया । श्रेष्ठी ने सुरसुंदरी को, अपने कक्ष से सटे हुए कक्ष दिखाकर कहा : 'यहाँ तुझे सुविधा रहेगी न? इस कक्ष में तेरे अलावा और कोई नहीं रहेगा। यहाँ सब तरह की सुविधाएँ हैं।' कक्ष छोटा था पर स्वच्छ था, सुंदर था व सुंदर ढंग से सजाया हुआ था। सुरसुंदरी ने कहा : _ 'पितातुल्य महानुभाव! इससे छोटा मामूली कक्ष होगा तो भी मेरे लिए चल जाएगा।' 'क्यों? मेरे जहाज़ में तुझे किसी भी तरह की कमी महसूस नहीं होनी चाहिए | और तू किसी भी तरह की चिंता मत करना। जहाज़ के सभी आदमियों को मैंने सूचना दे दी है... सब तेरे हर हुक्म का पालन करेंगे।' 'आप यह सब करके मुझपर उपकार का भार बढ़ा रहे हैं।' 'आप सचमुच महापुरूष हैं।' सुरसुंदरी अपनी कृतज्ञता व्यक्त करते हुए गद्गद् हो उठी। 'अच्छा, ये कपड़े तेरे लिए रखे हैं। गंदे कपड़े निकाल कर ये स्वच्छ कपड़े पहन लेना | स्नान के लिए भी कमरे में ही सुविधा है। फिर हम साथ-साथ भोजन करेंगे। For Private And Personal Use Only
SR No.009637
Book TitlePrit Kiye Dukh Hoy
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2009
Total Pages347
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size2 MB
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