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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १०३ पराक्रमी अजानंद दोपहर का समय था, धूप थी। पर गर्मी नहीं थी। हवा भी ठण्ढ़ी-ठण्ढ़ी बह रही थी। दोनों दोस्त बातें करते हुए चले जा रहे थे। शाम ढलने तक वे चलते ही रहे...चलते ही रहे | एक विशाल देवमन्दिर के सामने आकर वे रूके। अजानंद ने अपने मित्र से कहा : 'हम आज की रात इसी मन्दिर में रुक जायें | थकान भी लगी है। यहाँ सो जायेंगे तो आराम भी मिल जायेगा। सुबह फिर यहाँ से आगे बढ़ेंगे। मित्र ने हाँ कह दी। दोनों मित्र मन्दिर में चले गये। मन्दिर के एक कोने में जमीन साफ करके दोनों ने विश्राम किया । अजानंद ने अपने मित्र से कहा : 'ऐसा करें, पहले तू सो जा। मैं जागता हुआ बैठा हूँ। आधी रात गये मैं तुम को जगा दूँगा। तब मैं सो जाऊँगा। जंगल का मामला है, इसलिये दोनों को नहीं सोना चाहिए।' ___ वह मित्र तो थोड़ी ही देर में गहरी नींद में सो गया | अजानंद जागता हुआ बैठा था। उसके मन में उसे नये मित्र मे बारे में विचार चल रहे थे। इतने में उसने मन्दिर में सामने के कोने में कुछ उजाला सा देखा । वह पहले तो चौंक उठा। फिर सावधान होकर टकटकी बाँधे उस उजाले को देखता रहा। वह सोचने लगा : 'क्या यह कोई दिव्य प्रकाश होगा या फिर किसी सर्प के माथे पर रहे नागमणि का प्रकाश होगा? ऐसे सूनसान मंदिरों में कुछ भी हो सकता है। जरा नजदीक जाकर देखू तो कुछ पता चलेगा।' ऐसा सोचकर वह खड़ा हुआ । जहाँ प्रकाश दिखता था वहाँ पर धीरे-धीरे कदम बढ़ाता हुआ पहुँचा । प्रकाश में उसने देखा, वहाँ पर एक भूमि-गृह उसे दिखा । प्रकाश भूमि-गृह के दरवाजे पर ही था। अजानंद भूमि-गृह के दरवाजे के पास गया कि प्रकाश भूमिगृह में उतरने लगा। अजानंद के आश्चर्य का पार नहीं रहा। किसी भी आदमी के सहारे के बिना वह प्रकाश अपने आप जैसे चल-फिर रहा था। अजानंद को छटपटी हुई उस प्रकाश के रहस्य को खोलने की। अजानंद भी भूमि-गृह में नीचे उतरा। प्रकाश आगे और अजानंद उसके पीछे | भूमिगृह में रास्ता नीचे की ओर जाता था। प्रकाश की गति में वेग आया। तो अजानंद ने भी अपने कदम जल्दी-जल्दी बढ़ाये । आखिर में तो उसे दौड़ ही लगानी पड़ी। कई घंटो तक वह इस तरह चलता रहा और दौड़ता रहा। उसे कुछ खयाल ही नहीं रहा। जब समतल जमीन का इलाका आया कि यकायक वह प्रकाश अदृश्य हो गया-जैसे कि हवा में चिराग गुल हो गया। अजानंद वहाँ पर खड़ा रह गया। For Private And Personal Use Only
SR No.009636
Book TitleMayavi Rani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2009
Total Pages155
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size1 MB
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