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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पराक्रमी अजानंद १०२ आया। वह अपने मन में सोचने लगा : 'अरे, कौन मेरा फल ले गया? ओफ्फोह! सचमुच मेरी किस्मत ही दगाखोर है! अभागा के हाथ में आया हुआ रत्न भी टिक नहीं सकता। खो जाता है या उसे कोई चुरा जाता है। मैं भी कितना मूर्ख हूँ, यदि मैंने दिमाग लगाकर उस फल को अपनी ही कमर पर बाँध लिया होता तो वह फल मेरे पास रहता। कोई उस फल को नहीं ले जा सकता था। पर अब क्या हो सकता है?' यों निराश होकर अजानंद उसी पेड़ के नीचे आकर बैठा कि जहाँ से बन्दर फल उठाकर ले गया था। इतने में एक खूबसूरत दिखनेवाला आदमी वहाँ पर आकर अजानंद के सामने खड़ा हो गया | उसके गले में सुन्दर कीमती रत्नों का हार झूल रहा था | उसने आकर अजानंद को प्रणाम किया और कहा : ___ 'ओ महापुरष! तुम चिन्ता मत करोलो, यह तुम्हारा दिव्य फल...यों कहकर उसने अजानंद को वह फल वापस दिया। अजानंद ने आश्चर्यचकित होकर उस पुरुष को देखा और पूछा : 'तुम यह फल क्यों ले गये थे? और अब मुझे वापस क्यों लौटा रहे हो?' ___ उस आदमी ने कहा : 'देखो, दरअसल में तो यह तुम्हारा फल एक बन्दर उठाकर ले गया था। उसने इस फल का केवल ऊपर का छोटा सा हिस्सा खाया। कौर खाते ही वह बन्दर आदमी बन गया। वह आदमी मैं खुद हूँ। सचमुच मैं तुम्हारा बड़ा उपकार मानता हूँ। तुम यहाँ जैसे मेरे हित के लिये ही आ पहुँचे हो। तुम्हारे कारण मुझे इन्सान का देह मिला । तुम मेरे उपकारी बने हो। मैं तुम्हारा उपकार कभी नहीं भूल सकता | लो ये मेरा हार, मैं आपको भेट करता हूँ। मेरी स्मृति के रूप में तुम यह हार अपने पास में रखना।' यों कहकर उस आदमी ने अजानंद को हार भेंट किया। अजानंद तो यह सारी घटना देख, सुनकर आश्चर्य से मुग्ध हो उठा। अग्निवृक्ष के फल के प्रभाव से जानवर को आदमी बना हुआ देखकर उसके आनंद की सीमा नहीं रही। अजानंद ने अपने मन में सोचा : 'मुझे अभी १२ साल तक घूमना है। दुनिया में जगह-जगह पर परिभ्रमण करना है। इस आदमी को यदि मैं अपने साथ रख लूँ तो यह जरूर मेरे लिये सहायक बनेगा। यात्रा में एक से दो भले।' __उसने बन्दर से आदमी बने हुए से पूछा : 'भाई, अब तू इस जंगल में अकेला रहकर क्या करेगा? चल मेरे साथ | हम साथ-साथ घुमेंगे। देशविदेश में जायेंगे। नयी-पुरानी दुनिया देखेंगे और साथ-साथ रहेंगे।' __वह आदमी तैयार हो गया अजानंद के साथ चलने के लिये | दोनों वहाँ से आगे की यात्रा पर रवाना हुए। For Private And Personal Use Only
SR No.009636
Book TitleMayavi Rani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2009
Total Pages155
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size1 MB
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