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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पराक्रमी अजानंद १०४ उसने अपनी दाहिनी तरफ नजर दौड़ाई तो वहाँ पर उसे एक सुन्दर नगर का दरवाजा दिखाई दिया। अजानंद तो आश्चर्य से ठगा-ठगा सा रह गया। उसे अपना वह साथी मित्र याद आ गया । 'अरे! बिचारा वह तो अभी मंदिर में ही सो रहा होगा। जब जगेगा और मुझे नहीं देखेगा तब वह मेरे बारे में क्या सोचेगा? और इधर मुझे यहाँ तक खींच लाने वाला प्रकाश भी गायब हो गया ! कैसे अचानक अदृश्य हो गया ! ठीक है, अब तो इस नगर में जाऊँ और जाकर देखूँ तो सही कि यह नगर कैसा है ? इस नगर का नाम क्या है ? यहाँ के लोग कैसे हैं ?' अजानंद ने सावधानी पूर्वक नगर में प्रवेश किया। आकाश में सूरज झिलमिला रहा था। सूरज की सुनहरी किरणों का काफिला राजमार्ग पर उतर आया था। मुख्य सड़क पर चलते-चलते अजानंद नगर के मध्य भाग में पहुँचा। राजमार्ग सूनसान था । मध्य भाग में कुछ लोग उसे नजर आये। वे दिखने में उसे सुन्दर लग रहे थे। कपड़े भी उन्होंने सुन्दर पहन रखे थे । पर वे सब के सब उदासी के साये में सिमटे - सिमटे नजर आ रहे थे। किसी ने भी आँख उठाकर अजानंद की तरफ देखा तक नहीं । अजानंद राजमार्ग पर आगे बढ़ा। वह राजमहल के दरवाजे पर पहुँचा । वहाँ उसने देखा तो दरवाजे पर खड़े हुए द्वाररक्षक सैनिक भी शोक में डूबे हुए थे। उनके चेहरे पर उदासी की बदली छायी हुई थी। अजानंद हैरान हो गया । उसने जरा भी घबराये बगैर द्वाररक्षक से पूछा : 'भैया, मैं परदेशी हूँ। यहाँ पर आ गया हूँ। मैं यह जानना चाहता हूँ कि इस नगर का नाम क्या है ? यहाँ का राजा कौन है? तुम सब इतने उदास क्यों नजर आ रहे हो? सारा नगर इस तरह सूनसान और वीरान सा क्यों लग रहा है ? आखिर क्या हो गया है तुम सबको ?' द्वाररक्षकों ने अजानंद के सामने देखा । एक द्वाररक्षक ने कहा : 'ओ परदेशी जवान, इस नगरी का नाम 'शिवंकरा' है और यहाँ के महाराजा का नाम 'दुर्जय' है। वे बड़े पराक्रमी तथा शूरवीर हैं...। साथ ही साथ अपनी प्रजा से वे बेहद प्यार करते हैं। पर उन्हें शिकार करने का बहुत शौक है । शिकार के पीछे वे पागल हो जाते हैं । एक दिन वे शिकार करने के लिये जंगल में गये । उनके साथ कुछ सैनिक भी सज्ज होकर गये। कुछ सैनिकों के पास त्रिशूल थे। कुछ के पास गदाएँ थी। कइयों के हाथों में नुकीले भाले चमचमा रहे थे, तो कुछ सैनिकों के साथ शिकारी कुत्ते भी जीभ लपलपाते हुए चल रहे थे । राजा For Private And Personal Use Only
SR No.009636
Book TitleMayavi Rani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2009
Total Pages155
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size1 MB
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