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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पत्र १६ १२७ हुआ हूँ.... तू निबंधन है.... अपनी प्रीति कैसे निभ सकती है? समान भूमिकावालों के बीच ही प्रीति हो सकती है और निभ सकती है। इसलिए अपनी समान भूमिका बननी चाहिए। आप रागी नहीं बन सकते, मैं नीरागी बन सकता हूँ| आप मोहदशा में नहीं आ सकते, मुझे निबंधन होना पड़ेगा। यानी आपकी भूमिका मुझे प्राप्त करनी होगी, आप मेरी भूमिका पर नहीं आ सकते। रागी और मोहांध लोग, सामने [मुख आगले] परम निधान पड़ा हो, फिर भी उसको देखते नहीं हैं.... और वैसे ही आगे चलते रहते हैं। न आत्मा में गुणों का निधान दिखता है, न परमात्मा की महिमा दिखती है। परमनिधान प्रगट मुख आगले, जगत उल्लंघी हो जाय.... दुनिया की रफ्तार ही ऐसी है। आत्मा ही नहीं दिखती, तो फिर आत्मा के गुण कैसे दिखेंगे? भौतिक संपत्ति ही जिसको निधान लगता है, उसको आध्यात्मिक संपत्ति निधानरूप कैसे लगेगी? राग और मोह की प्रबलता, आध्यात्मिक संपत्ति को देखने ही नहीं देती। रागदृष्टि और मोहदृष्टि से आत्मा के गुण नहीं दिखायी देते। वे गुण देखने के लिए चाहिए जगदीश की ज्योति! ज्योति विना जुओ जगदीशनी, अंधो अंध पलाय.... जगदीश की ज्योति का अर्थ है, सम्यग्दर्शन | राग-द्वेष की प्रबलता कम हुए बिना 'सम्यग्दर्शन' प्राप्त नहीं होता है। सम्यग्दर्शन के अभाव में दुनिया के लोग वैसे दौड़ रहे हैं, जैसे एक अंधे के पीछे दूसरा अंधा दौड़ता है! ‘पलाय' यानी अनुसरण करना। एक अंधे का अनुसरण दूसरा अंधा करता है। जगदीश की ज्योति के बिना, अंधकार में भटकते हुए लोग 'धर्म.... धर्म' की चिल्लाहट तो बहुत करते हैं, परंतु धर्म का मर्म नहीं समझ पाते हैं । अधर्म को धर्म और धर्म को अधर्म मानते हुए अनेक विडंबनायें पाते हैं। __प्रमादरहित और पापरहित जीवन जीनेवाले महामुनिओं की प्रशंसा करते हुए योगीराज गाते हैंनिर्मल गुणमणि-रोहण भूधरा मुनिवर मानसहंस.... रोहणाचल पर्वत कथाग्रन्थों में प्रसिद्ध है! उस पर्वत पर रत्न मिलते हैं, यानी उस पहाड़ पर खुदाई करने से रत्न निकलते हैं! [रोहण = रोहणाचल, भूधरा = पहाड़] अप्रमत्त मुनिवरों को कवि ने रोहणाचल पर्वत की उपमा दी For Private And Personal Use Only
SR No.009635
Book TitleMagar Sacha Kaun Batave
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2010
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size2 MB
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