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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १२६ पत्र १६ हृदयनयण निहाले जगधणी, महिमा मेरु समान.... हे जिननाथ, हृदयरूप नयनों से मेरू समान आप की महिमा का दर्शन होता है। आपकी अपार महिमा का दर्शन हृदयदृष्टि से ही हो सकता है। 'निःसीम महिमा' समझाने के लिए 'मेरू समान' कहा है। प्रवचन-अंजन प्राप्त होने पर, आत्मा में परम निधान देखने पर और मेरु समान महिमावाले जगधणी का दर्शन करने पर, योगीराज कहते हैं.... दौड़ते रहो! जितनी मन की शक्ति हो.... उतना दौड़ते रहो....! दोडत दोडत दोडत दोडियो, जेती मननी रे दोड़ प्रेम-प्रतीत विचारो ढुंकड़ी, गुरुगम लेजो रे जोड़.... खूब आगे बढ़ते चलो। परमात्मा के साथ प्रेम होने की प्रतीति निकट [ढुंकड़ी] में ही होनेवाली है। इस आभ्यंतर दौड़ में यदि ज्ञानी गुरुदेव का मार्गदर्शन मिल गया.... तब तो प्रेम-संबंध पक्का ही समझ लेना। आन्तरचक्षु से परमात्मा के दर्शन होने पर, परमात्मा की ओर दौड़ने के लिए योगीराज प्रेरणा करते हैं। कैसे दौड़ना?' इस रहस्य को वे छिपाकर रखते हैं और 'गुरुगम' से समझने के लिए कहते हैं। आध्यात्मिक मार्ग पर चलने के लिए उस मार्ग के अनुभवी महापुरुषों का मार्गदर्शन लेना जरूरी होता ही है। परमात्मा के पास दौड़ कर पहुँचने की बात सुनकर, परमात्मप्रेमी मनुष्य आनन्दविभोर तो हो जाता है, परन्तु उसके मन में एक बड़ा प्रश्न पैदा हो जाता हैएक पखी किम प्रीत परवड़े? उभय मिल्या होय संधि.... प्रीति तो दोनों पक्ष की होनी चाहिए न! एक पक्षीय प्रीति कैसे निभ [परवड़े] सकती है? दोनों मिलने पर संबंध (संधि) होता है | कवि का यह कहना है कि परमात्मा से मेरी प्रीति तो है ही, परंतु परमात्मा की मेरे प्रति यदि प्रीति नहीं है, तो हमारा संबंध कैसे बनेगा? और परमात्मा की मेरे साथ प्रीति होगी भी कैसे? चूंकिहुं रागी, हुं मोहे फंदियो, तूं नीरागी निरबंध.... हे भगवंत, मैं रागी हूँ, तू वीतराग [नीरागी] है | मैं मोह में फँसा [फंदियो] For Private And Personal Use Only
SR No.009635
Book TitleMagar Sacha Kaun Batave
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2010
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size2 MB
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