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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७६ देवबोधि की पराजय ___ आचार्यदेव ने कहा... 'चलो, अब पास के कमरे में जाएँ... तुम्हें चमत्कार ही देखना है ना? मैं तुम्हें चौबीस तीर्थंकरों के दर्शन करवाता हूँ!' वाग्भट्ट के साथ कुमारपाल, गुरुदेव के पीछे-पीछे कमरे में गये। कमरा बंद कर दिया गया। गुरुदेव एक आसन पर बैठ गये। आँखें बंद कर के ध्यान लगाया कि पूरा कमरा प्रकाश से झिलमिला उठा। कुमारपाल ने ऋषभदेव से लेकर भगवान महावीर तक के चौबीस तीर्थंकरों को प्रत्यक्ष देखा! समवसरण में बैठे हुए देखा! चौबीस समवसरण देखे! प्रत्येक समवसरण में हर एक तीर्थंकर चारों दिशा में दिखायी देते थे और समवसरण में देव-मनुष्य-पशु वगैरह शांति से बैठे हुए तीर्थंकरों का उपदेश सुन रहे थे। कुमारपाल तो ठगे-ठगे से रह गये! 'क्या करना?.... क्या कहना!' कुछ सुझ नहीं रहा था। आचार्यदेव ने उसका हाथ पकड़कर अपने निकट में बिठाया। तीर्थंकरो के उपदेश की वाणी उस कमरे में गूंजने लगी : 'कुमारपाल, सोना-चाँदी, हीरे-मोती वगैरह द्रव्यों की परीक्षा करनेवाले परीक्षक तो कई होते हैं... परन्तु धर्मतत्त्व के परीक्षक तो विरले ही होते हैं! ऐसा विरल तू एक है! तूने हिंसामय अधर्म का त्याग करके दयामय धर्म को स्वीकार किया है। याद रखना राजन! तेरी सारी समृद्धि धर्मरूपी पेड़ के फूल समान है। आगे तो तुझे मोक्षरूप फल मिलनेवाला है। सचमुच... तू महान सौभाग्यवान है कि तुझे ऐसे ज्ञानी हेमचन्द्रसूरिजी मिले हैं | तू उनकी आज्ञा का भलीभाँति पालन करना। तीर्थंकरों की वाणी बंद हुई, वे अदृश्य हो गये। इतने में कुमारपाल के पूर्वज राजा प्रगट हुए। वे कुमारपाल से गले मिले। और कुमारपाल से कहने लगे : 'वत्स, कुमारपाल! गलत धर्म को छोड़कर सच्चे धर्म को स्वीकारनेवाला तेरे जैसा हमारा पुत्र है इसके लिए हम गौरव महसूस करते हैं! यह एक जिनधर्म ही मुक्ति दिलाने के लिए समर्थ है! इसलिए तेरे चंचल चित्त को स्थिर कर और तेरे परम भाग्य से मिले हुए इन गुरुदेव की सेवा कर | उनकी आज्ञा का पालन कर।' For Private And Personal Use Only
SR No.009634
Book TitleKalikal Sarvagya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2009
Total Pages171
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size3 MB
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