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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org देवबोधि की पराजय 'महाराजा, मैं अवश्य आपकी सेवा में उपस्थित हो जाऊँगा ।' वाग्भट्ट वहाँ से निकलकर सीधे ही आचार्यदेव के पास गये। गुरुदेव को वंदना करके उन्होंने कहा : Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उपाश्रय में प्रवचन सभा भरी हुई है । आचार्यदेव धर्म का उपदेश दे रहे हैं । 'गुरुदेव, महाराजा ने स्वयं ही कल सबेरे आप के पास आने के लिए कहा है।' 'ठीक है, वाग्भट्ट ! वह आएगा ही । प्रवचन के दौरान उसे वह चमत्कार देखने को मिलेगा कि उस योगी के चमत्कार फीके लगेंगे । मामूली लगेंगे ।' वाग्भट्ट मंत्री को गुरुदेव पर शत प्रतिशत विश्वास था । उन्होंने गुरुदेव को वंदना की । निश्चिंत होकर अपने घर पर गये । ७५ एक हजार स्त्री-पुरुष लीन - तल्लीन होकर उपदेश की गंगा में बह रहे हैं। राजा कुमारपाल आचार्यदेव के सामने बैठे हुए हैं । उपदेश सुनने में एकचित्त हैं। उनके बराबर पीछे वाग्भट्ट मंत्री बैठे हुए हैं । एक घंटा बीता और आचार्यदेव जो सात पाट पर बैठे हुए थे... वे पाट एक के बाद एक खिसकने लगी । सातों पाटें खिसक गई। और आचार्यदेव आकाश में बिना किसी सहारे के अधर में बैठे रहे । उपदेश देते रहे । राजा कुमारपाल की आँखें विस्फारित हो उठीं । वे आश्चर्य से बोल उठे.... ‘अद्भुत!’ प्रजाजन हर्ष से पुलकित बन गये । गद्गद् हो उठे । वाग्भट्ट मंत्री की आँखें हर्ष के आँसुओं से छलक आई। राजा सोच रहा है : 'कल देवबोधि को कदली पत्र के आसन पर बैठा हुआ देखा था... वह मौन था । जबकि ये तो बिना किसी आधार के आकाश में-अधर में बैठ कर उपदेश दे रहे हैं। कितनी अद्भुत योगशक्ति है इन महापुरुष में ! राजा ने खड़े होकर विनति की : For Private And Personal Use Only 'गुरुदेव, अब आप पाट पर बिराजमान होकर प्रवचन दीजिए। आपकी इस कला के समक्ष तो अच्छे-अच्छे कलाकारों की कलाएँ फीकी पड़ जाएँगी ! महासागर की उफनती - उछलती हुई मौजों के सामने भला ताल-तलैये की लहरों की क्या बिसात?'
SR No.009634
Book TitleKalikal Sarvagya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2009
Total Pages171
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size3 MB
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