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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सच्ची सुवर्णसिद्धि १३७ रात थोड़ी ही अवशेष रही थी। वे निद्राधीन हो गये। ० ० ० 'मुनिवर, हम पूज्य गुरुदेव के दर्शन-वंदन के लिए पाटन से आये हैं। आप कृपया गुरुदेव के चरणों में निवेदन करें कि : 'पाटन से वाग्भट्ट वगैरह आये हैं।' ___ वाग्भट्ट मंत्री अन्य आठ राजपुरूषों को साथ लेकर पाटन से खंभात पहुँचे थे। गुरूदेव देवचन्द्रसूरिजी को हेमचन्द्रसूरिजी का संदेश देने के लिए। उपाश्रय में प्रवेश करके, वहाँ पर बैठे हुए एक मुनि को वंदना करके विनम्रता से उपयुक्त निवेदन किया। ___ उपाश्रय के एकान्त कमरे में ध्यान-साधना में रत पूज्य गुरुदेव को मुनिवर ने जाकर निवेदन किया। गुरुदेव ने कहा : 'वाग्भट्ट को कहो कि 'वह यहाँ आ सकता है।' मुनिराज ने वाग्भट्ट को सूचना दी। वाग्भट्ट अन्य राजपुरूषों के साथ उस कमरे में गये, जहाँ पर गुरुदेव बिराजित थे। गुरुदेव को भावपूर्वक प्रणाम करके, वंदना करके सविनय उनके चरणों में बैठे। 'गुरुदेव आपके पूज्यदेह में सुखशाता है?' 'देवगुरु की कृपा से सुखशाता है... यहाँ तक आने का विशेष कुछ प्रयोजन?' 'मेरे गुरु हेमचन्द्रसूरिजी का संदेश लेकर आया हूँ।' 'क्या संदेश है महानुभाव?' 'आपको पाटन पधारने के लिए आग्रहभरी विनती है। आप पाटन पधारने की कृपा करें।' देवचन्द्रसूरि विचारों में खो गये । 'वह मुझे क्यों पाटन बुला रहा है? क्या कोई बहुत बड़ा कार्य आ पड़ा होगा? मेरे वहाँ नहीं होने से संघ का कोई कार्य रुक गया होगा? कोई जटिल समस्या खड़ी हो गई होगी? बड़े और विशेष प्रयोजन के बगैर तो वह मुझे इतनी दूर बुलाएगा नहीं?' उन्होंने वाग्भट्ट से कहा : For Private And Personal Use Only
SR No.009634
Book TitleKalikal Sarvagya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2009
Total Pages171
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size3 MB
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