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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जिनमंदिरों का निर्माण अंग-अंग में रोमांच महसूस करने लगे। हृदय गद्गद् हो उठा। 'भगवन्, आज आपने मेरे ऊपर जो उपकार किया है... उस उपकार के लिए तो मैं कुछ कर ही नहीं सकता! मुझे नहीं पता मैं इसका बदला कैसे चुकाऊँगा? आपने मुझे सबोध देने का जो उपकार किया है... उन उपकारों पर यह उपकार कलश के समान है। ___ 'गुरुदेव, इन सभी उपकारों का बदला मैं आखिर कैसे चुकाऊँगा।' पूनम के चन्द्र की चाँदनी से आपके चरणों को धोऊँ? गोशीर्ष-चंदन के प्रवाह से आपके चरणों पर विलेपन करूँ? देवलोक के नंदनवन के पुष्प लाकर आपके चरणों में चढाऊँ? क्या करूँ? प्रभु! जीवनभर क्या इन सब उपकारों का भार मैं वहन करता ही रहूँगा।' ___ गुरूदेव के चेहरे पर मधुर स्मित उभर आया। उन्होंने कुमारपाल के सिर पर हाथ रखकर कहा : ___ 'कुमारपाल, मेरे कहने से तू देश में और परदेश में अहिंसा धर्म का अद्भुत प्रचार-प्रसार कर रहा है... वह क्या छोटी-मोटी बात है? और फिर... मैंने तेरे ऊपर ऐसे कौन से बड़े भारी उपकार कर डाले हैं कि तू मेरी इतनी प्रशंसा कर रहा है! तेरे श्रेष्ठ पुण्योदय से तेरे कष्ट दूर हुए हैं... तेरी अपूर्व धर्मश्रद्धा से ही तेरे दुःख दूर हुए हैं । मैं तो एक निमित्तमात्र हूँ। घोर आपत्ति और संकट की कड़ी परीक्षा की घड़ियों में भी तूने अपना अहिंसा व्रत सुरक्षित रखा यह कोई कम बात है? ऐसे समय में तो शायद कोई मुनि भी अपने व्रत को न सम्हाल सके! कुमार, दान की कसौटी तो दरिद्रता में ही होती है। पराक्रम की परीक्षा युद्ध की घड़ियों में होती है। और व्रत की कसौटी प्राणसंकट के समय ही होती है। तूने प्राणसंकट के टूट गिरने पर भी आर्हत धर्म नहीं छोड़ा है... इसलिए मैं तुझे ‘परमार्हत्' का खिताब देता हूँ।' राजा की आँखें अश्रुपूरित हो उठी। 'मेरे मालिक... मेरे जीवन के सर्वस्व... आप जैसे मेरे परम रक्षक हैं... मैं तो बड़ा ही सौभाग्यशाली हूँ। जनम-जनम तक आपका दास रहूँगा... गुरुदेव!' गुरुदेव को प्रणाम करके कुमारपाल अपने महल पर गया। For Private And Personal Use Only
SR No.009634
Book TitleKalikal Sarvagya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2009
Total Pages171
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size3 MB
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