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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५५ जिंदगी इम्तिहान लेती है लड़के के प्रति उनको कितना प्रेम है, यह भी मैं जानता हूँ | लड़का यह मानने को तैयार नहीं! मैंने उसके माता-पिता को कहा : 'इसको आप करुणा भावना से, घर से मुक्त करो। उसको उन लोगों के पास जाने दो, जिनको यह 'प्रेमपूर्ण' मान रहा है। वहाँ उनके संग रहने दो। इस आवारागर्दी से वह वहाँ कब तक टिक सकता है और वे प्रेमी लोग कब तक इसको खिलाते-पिलाते हैं, अनुभव करने दो इसको।' ___ परंतु वे माता-पिता थे न! उनका हृदय प्रेमपूर्ण था। उनकी आँखें डबडबा गई। इस लड़के का जीवन बर्बाद न हो जाये... दुर्लभ मानव जीवन व्यर्थ चला न जाये... दुर्व्यसन और दुष्टसंगति से जीवन पापमय न बन जाये...' ऐसी बातें प्रेम के बिना कौन करता भला? परंतु उस लड़के को समझाना मुश्किल था! ___ व्यावहारिक प्रेम और हार्दिक प्रेम में बहुत बड़ा अन्तर है। संसार में ज़्यादातर लोग व्यावहारिक प्रेम को ही प्रेम मानते हैं। विशुद्ध हृदय के शुद्ध प्रेम को कौन जानता है? नारद भक्तिसूत्र के माध्यम से इस शुद्ध प्रेम को समझाते हैं। प्रेम गुणरहित, कामनारहित होना चाहिए। प्रतिक्षण बढ़ता रहना चाहिए | अविच्छिन्न, सूक्ष्मतर और अनुभवस्वरूप होना चाहिए। इस प्रकार का प्रेम ही सच्चा प्रेम है। मेरे खयाल से तेरी शिकायतों का समाधान हो जाएगा। जिसके भी मन में व्यावहारिक प्रेम की कल्पनाएँ होती हैं, वे लोग इस प्रकार की शिकायत करते ही रहते हैं। विशुद्ध प्रेम की परिभाषा इसीलिए तो मैं समझा रहा हूँ। निराश होने की आवश्यकता नहीं है। 'ऐसा विशुद्ध प्रेम तो नहीं हो सकता।' इस विचार को दिमाग से बाहर फेंक दे। अशक्य का कर्तव्यरूप प्रतिपादन महर्षि नहीं करते। शक्य है, ऐसा हृदय बनाना और ऐसा प्रेमरस प्रगट करना। हाँ, तू दूसरों से ऐसे प्रेम की अपेक्षा करता रहेगा तो ऐसा प्रेम तुझे कहीं पर भी नहीं दिखाई देगा | चूँकि यह प्रेम देखा नहीं जा सकता। यह तो अनुभव की बात है। तू स्वयं अनुभव कर सकेगा। हृदय को विशुद्ध करने के लिए मैत्री, प्रमोद, करुणा और माध्यस्थ्य इन चार भावनाओं से तेरे मन को भावित कर दे। जब तक एक जीवात्मा के प्रति भी शत्रुता का भाव रहेगा, हृदय विशुद्ध नहीं बनेगा । 'मेरा कोई शत्रु नहीं है। सब जीव मेरे मित्र हैं। इस प्रकार समग्र जीवसृष्टि के प्रति मित्रता की स्निग्ध For Private And Personal Use Only
SR No.009633
Book TitleJindgi Imtihan Leti Hai
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2009
Total Pages234
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size3 MB
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