SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 25
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १७ प्रवचन-५० अन्य मत में भी हर्ष को शत्रु माना गया है : जो जैन नहीं हैं, जैनधर्म के सिद्धान्त को नहीं जानते हैं, वे भी यदि पाप को पाप माननेवाले हैं; हिंसा, असत्य, चोरी, दुराचार आदि को पाप मानते हैं; तो उनको भी पापों में हर्ष नहीं करना चाहिए | बौद्ध और वैदिक परम्परा में भी 'हर्ष' को शत्रु माना गया है। पापों में खुश होने की बात कोई भी धर्म नहीं कह सकता है। यदि वह 'धर्म' है तो! जो लोग धर्म के नाम, तत्त्वज्ञान के नाम....पापों में भी खुशियाँ मनाने की बात करते हैं, उनके प्रपंच-जाल में मत फँसना | आज भी वैसे लोग हैं, कि जो मजे से पाप करने का उपदेश देते हैं! उनके मठ में सभी पाप मजे से होते हैं! उनके नामधारी संन्यासी और अनुयायी मस्ती से पाप करते हैं! उन्होंने वैसा जाल बिछा दिया है कि भोले भाले लोग बेचारे उस जाल में फँस जाते हैं! अनेक दुर्व्यसनों में फँसते हैं, दुराचार-व्यभिचार में फँसते हैं और तन-मन-धन से बरबाद होते हैं। ___ पाप करना गुनाह है, परन्तु पापों में खुश होना भारी गुनाह है। पापाचरण की सजा होती है, परन्तु पापाचरण में हर्षित होने की सजा भारी होती है, लंबी होती है। इसलिए, हर्ष को शत्रु मानो और उससे मुक्त बनो। यदि आनन्द चाहिए तो अच्छे कार्यों में आनन्द का अनुभव करो। सत्प्रवृत्ति में हर्षित बनो। दूसरों के अच्छे कार्य देखकर, सुनकर हर्षित बनो। आपका वह हर्ष 'प्रमोद' बन जायेगा! राजा श्रेणिक ने भगवान महावीर से यही तत्त्व पाया था न! स्वयं श्रेणिक इतना निर्बल मन का था कि वह पापों का त्याग नहीं कर सकता था, परन्तु पापत्यागी स्त्री-पुरूषों के प्रति उसके हृदय में प्रेम और आदर था। पापत्यागी साधु-साध्वी को देखकर उसका हृदय प्रमोद से भर जाता था। हर्ष से गद्गद् हो जाता था। पापों में आनंद नहीं होना चाहिए : मनुष्य को जीवन में आनन्द चाहिए | आनन्द के बिना जीना भी मुश्किल बन जाता है। ज्ञानीपुरूष 'Totally'-सर्वथा आनन्द का निषेध नहीं करते हैं, ज्ञानी पुरूषों का कहना इतना ही है कि पापों में आनन्दित मत बनो । पापों में हर्षित मत बनो! चूंकि उनकी ज्ञानदृष्टि में वे उसका कटु परिणाम देखते हैं। बुरा नतीजा देखते हैं। दूसरी एक महत्त्व की बात समझ लो। जिस कार्य को करने में आपको एक बार मज़ा आ गया, आप हर्षित-आनन्दित बने, कि वह कार्य पुनः-पुनः आपके For Private And Personal Use Only
SR No.009631
Book TitleDhammam Sarnam Pavajjami Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2010
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Religion
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy