SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 24
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-५० १६ नाम था सुनंदा | सुनंदा ने रूपसेन को देखा, रूपसेन ने सुनंदा को देखा! बस, तारामैत्रक बंध गया । दृष्टि से प्रेम हो गया । इशारे हुए और संकेत से मिलने का स्थान और समय निश्चित हो गया! रूपसेन हर्ष से गद्गद् हो गया। 'राजकुमारी के साथ संयोग होगा, प्रेम होगा...' इस कल्पना से उसका मनमयूर नाचने लगा। वह अपने घर लौटा, तो भी उस कल्पना से मुक्त न हो पाया। उसको कहाँ ज्ञान था कि 'मैं जिस कल्पना में आनन्द की अनुभूति करता हूँ...इससे पापकर्म बाँध रहा हूँ और मेरे भविष्य को अन्धकारमय बना रहा हूँ...दुःखपूर्ण बना रहा हूँ।' याद रखना, अभी रूपसेन ने पापकर्म शरीर से नहीं किया है, परन्तु राजकुमारी के साथ संभोग की कल्पनामात्र की है, योजना बनाई है और मधुरता का अनुभव किया है। पापाचरण की पूर्वभूमिका बनाई थी...परन्तु इससे भी उसने निकाचित पापकर्म बाँध लिया था! इसका उसको पता नहीं था! पता कैसे लगे? मोह की बेहोशी में कर्मबन्ध का पता नहीं लगता है। जब रूपसेन संध्या के बाद, अंधेरे में राजकुमारी के पास जाने निकला, रास्ते में एक जर्जरित दीवार उस पर गिर पड़ी और रास्ते में ही मर गया। मरकर वह उसी राजकुमारी के पेट में गर्भरूप से उत्पन्न हुआ! क्योंकि जिस समय रूपसेन की मृत्यु हुई उस समय सुनंदा एक चोर को अंधेरे में रूपसेन मानकर, उसके साथ शारीरिक संभोग में लीन थी और गर्भवती बनी थी! उसका प्रेमी ही उसके पेट में गर्भरूप से आया था! राजकुमारी को जब खयाल आया कि वह गर्भवती बनी है, वह भयाक्रान्त हो गई। अपकीर्ति का भय लगा। उसने गर्भपात करने का निर्णय किया। अपनी दासी के द्वारा वैसे औषध मँगवाये और गर्भ को सड़ा-सड़ाकर नष्ट किया । कौन था उस गर्भ में? रूपसेन की आत्मा! कितना दुःख पाया? कैसी घोर यातना पायी? क्या था मूलभूत कारण? पाप में हर्ष! पाप में आनन्द! सभा में से : आजकल तो ऐसे पाप, हम लोग हजारों करते हैं....क्या होगा हमारा? महाराजश्री : सावधान हो जाओ। जाग्रत बनो। जीवन में ऐसे पाप हो गये हो तो हार्दिक पश्चात्ताप करो। भविष्य में ऐसे पाप नहीं करने का संकल्प करो। 'मैं अब कभी भी पापों में आनन्दित नहीं बनूंगा, निर्बल मन कभी पापविचार कर लेगा, तो भी उसमें खुशी नहीं मनाऊँगा। For Private And Personal Use Only
SR No.009631
Book TitleDhammam Sarnam Pavajjami Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2010
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Religion
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy