SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 95
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-३१ अनीति-अन्याय, माया-कपट के बिना हो नहीं सकते। माया-कपट बड़े खतरनाक तत्त्व हैं। यदि आपके स्वभाव में माया-कुटिलता घुलमिल गये तो आपको गिराये बिना नहीं छोड़ेगे। अनीति-अन्याय मायाप्रेरित तो होते हैं। अनीति-अन्याय करने में माया किये बिना, कपट किये बिना, विश्वासघात किये बिना चल नहीं सकता। यदि व्यापारी मिलावट करता है-यानी कि दूध में पानी मिलाता है, घी में चर्बी की मिलावट करता है, केसर के नाम पर रंगा हुआ घास बेचता है, क्या यह सब माया-कपट के बिना होता है? क्या इसमें विश्वासघात नहीं है? व्यापार में गलत नाप-तौल रखना क्या माया-कपट नहीं है? बराबर याद रखना, यह सब करने से तिर्यंचगति का आयुष्य-कर्म बंध जायेगा और मरकर पशु-पक्षी की योनि में जन्म लेना पड़ेगा। मनुष्य का विशेषाधिकार : चाहे जिस गति में जा सकता है : आप यह बात तो जानते हो न कि वर्तमान भव में जीव जिस गति का आयुष्य-कर्म बाँधता है, उसी गति में उसको जन्म लेना पड़ता है। इस बात का अर्थ समझे? आनेवाले जीवन का निर्णय वर्तमान जीवन में हो जाता है। आनेवाले जीवन का आयुष्य-कर्म वर्तमान जीवन में बंध जाता है। मनुष्य चारों गति का आयुष्य-कर्म बाँध सकता है। देवगति का, मनुष्यगति का, तिर्यंचगति का अथवा नरकगति का। चारों में से कोई भी एक गति का आयुष्य-कर्म बाँधता है। कब बाँधता है? ऐसा मत पूछना । बाँधनेवाला भी नहीं जान सकता कि उसने कब और कौन-सा आयुष्य-कर्म बाँधा है? जीवन के किसी भी क्षण में आयुष्य-कर्म बंध सकता है। आगामी गति का आयुष्य-कर्म बाँधे बिना जीवात्मा की मृत्यु नहीं होती है। जीवात्मा किसी भी गति में हो, यह नियम सभी जीवों के लिए समान है। मनुष्य और कुछ पशु-पक्षी चार गति में से कोई भी गति का आयुष्य-कर्म बाँध सकते हैं। जो देव-देवी होते हैं, वे देवगति और नरकगति का आयुष्य-कर्म नहीं बाँध सकते। वैसे जो नारकी के जीव होते हैं, वे देवगति और नरकगति का आयुष्य-कर्म नहीं बाँध सकते। देव मरकर मनुष्ययोनि अथवा तिर्यंचयोनि में जाते हैं, नारक मरकर मनुष्ययोनि अथवा तिर्यंचयोनि में जाते हैं। मनुष्य किसी भी योनि में जा सकता है। मनुष्य का यह विशेषाधिकार है। कहिए, कौन-सी गति में जाना है? अथवा यह कहें कि कौन-सी गति में नहीं जाना है? For Private And Personal Use Only
SR No.009630
Book TitleDhammam Sarnam Pavajjami Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2010
Total Pages291
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Religion
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy