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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-६ ७८ जिनवचन की यही विशेषता है : अनेकान्त दृष्टि । इसीलिए जिनवचन श्रेष्ठ है। भगवान महावीर के धर्मशासन में ऐसी अविरुद्ध तत्त्व-व्यवस्था देखने को मिलती है, इसलिए तो महावीर के धर्मशासन को 'जैनं जयति शासनम्' कहते हैं। सब धर्मशासनों पर जैनशासन विजेता है! अनेकान्त दृष्टि से वह विजेता बना है! अविरुद्ध वचन ही उपादेय : जिनवचन अविरुद्ध है, इसलिए उपादेय है, स्वीकार्य है। ऐसे जिनवचन के अनुसार अनुष्ठान-क्रिया की जाय, वह धर्म है। कोई भी अनुष्ठान-क्रिया करो, जिनवचनानुसार होना चाहिए, बस यही धर्म है! धर्म का क्रियात्मक रूप यह है । यहाँ एक सावधानी रखना : वह क्रिया जैसे-तैसे नहीं करने की है, अपनी कल्पनानुसार नहीं करने की है-'यथोदित' रूप से करने की है। जिस प्रकार क्रिया करने को जिनवचन में कहा गया है, उस प्रकार करने की है! धर्म का स्वरूप बतलाते हुए आचार्यश्री कहते हैं कि धर्म 'अविरुद्ध जिनवचन के अनुसार अर्थात् जिस प्रकार जो अनुष्ठान करने को कहा है, उसी प्रकार वह अनुष्ठान किया जाय, वह धर्म है।' मैत्री-करुणा-प्रमोद और मध्यस्थ भावों से धर्म करनेवाले मनुष्य का हृदय नवपल्लवित होना चाहिए। कोई भी धर्मक्रिया हो, जिनवचन-जिनाज्ञा के अनुसार होनी चाहिए। जिस प्रकार वो धर्मक्रिया करने को कही हो, उसी प्रकार करनी चाहिए। हाँ, प्रत्येक धर्मक्रिया को लेकर ज्ञानी महापुरुषों ने मार्गदर्शन दिया है। कौन-सी धर्मक्रिया कहाँ करना, कब करना, कौन-से उपकरणों से करना और किस प्रकार के भावों से करना! जिनवचन को समझा है? आप लोग जैनपरिवार में जन्मे हो और जन्म से ही आपको अरिहंत परमात्मा मिले हैं, उनका धर्मशासन मिला है, इसलिए जिनवचन की अविरुद्धता का तो विचार भी करने की आवश्यकता नहीं है। जिनवचन सहज रूप से मिल गया है, तो जाँच करने की जरूरत ही नहीं रही! वंशपरंपरा से सच्चा हीरा घर में है, जौहरी को बताने की कोई आवश्यकता नहीं अर्थात् आप लोगों को जिनवचन तो मिल ही गया है। हाँ, घर में मूल्यवान रत्न पड़े हों, परन्तु आप उन रत्नों को देखो नहीं, उपयोग करो नहीं और भटकते फिरो-दूसरी For Private And Personal Use Only
SR No.009629
Book TitleDhammam Sarnam Pavajjami Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2010
Total Pages339
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Religion
File Size2 MB
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