SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 85
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-६ ७७ होते ही हैं, सब बैलों को होते हैं; परन्तु भैंस और गाय वगैरह के भी सींग होते हैं-लक्षण गाय-भैंस में भी चला गया। इसलिए यह लक्षण 'अतिव्याप्ति' दोषवाला हो गया। 'असंभव' दोष समझना तो काफी सरल है। किसी ने गधे का लक्षण बताया-'जिसको सींग होता है वह गधा..' किसी भी गधे को सींग दिखाई नहीं देता, गधे को सींग असंभव! अर्थात् लक्ष्य में लक्षण रहे ही नहीं। जिनवचन में इन तीन दोषों में से एक भी दोष नहीं होता है। इसलिए जिनवचन में किसी प्रकार का विरोध नहीं है। हाँ, कुछ अन्य धर्मस्थापकों की बातें भी ऐसी अविरुद्ध हो सकती हैं-भले वे धर्मस्थापक जिन नहीं थे, सर्वज्ञ नहीं थे! अनेकान्त दृष्टि में ही संवादिता : प्रश्न : इसका क्या कारण? अविरुद्ध वचन तो जिनेश्वर का ही हो सकता है न? उत्तर : दूसरे धर्मस्थापक धर्म की बातें लाये कहाँ से? मूल स्रोत तो है जिनेश्वर का ही वचन! जिनवचन में से कुछ बातें एकान्त दृष्टि से पकड़ लीं और चलाया अपना अलग मत, अलग धर्म। है उसमें मूलभूत जिनवचन, इसलिए मार्गानुसारी बुद्धिवाले मनुष्य को कुछ बातें जिनवचन जैसी ही लगेंगी; परन्तु एकान्तदृष्टि होगी, इसलिए आगे चलकर विरोध आएगा ही! एकान्तवादियों की बातें अविरुद्ध हो नहीं सकतीं। प्रश्न : वेदों को 'अपौरुषेय' मानते हैं-क्या वेदवचन अविरुद्ध नहीं हैं? उत्तर : एक बात आप समझ लो, एकान्तवादिता जहाँ भी हो, अविरोधसंवादिता हो नहीं सकती। अपने को वेदों से बैर नहीं है, आगम से प्यार नहीं हैं! जहाँ अनेकान्त दृष्टि से तत्त्वों का प्रतिपादन हो, अपने को प्रेम है, श्रद्धा है। दूसरी बातः कोई भी वचन 'अपौरुषेय' हो नहीं सकता! बिना पुरुष, वचन आया कहाँ से? मनुष्य बोले ही नहीं, मुँह खोले ही नहीं, वचन आयेगा कहाँ से? कहते हैं कि वेद किसी ने बनाए नहीं! अनादिकाल से हैं! ऐसा कहनेवाले दूसरी तरफ कहते हैं कि इस सृष्टि की रचना ईश्वर ने की! तो क्या जब सृष्टि नहीं थी तब 'वेद' थे? किसलिए थे? मान्यता में घोर विरोध उपस्थित हुआ तब कुछ लोगों ने कहा : 'वेद ईश्वरोच्चरित हैं!' अर्थात् ईश्वर ने वेदों की रचना की। भले ईश्वर ने रचना की, क्या वेदों में अनेकान्त दृष्टि से तत्त्वव्यवस्था है? यदि है, तो वेदों को मानने में कोई ऐतराज नहीं! परन्तु अनेकान्त दृष्टि नहीं है! इसलिए तत्त्वों में संवादिता नहीं है। For Private And Personal Use Only
SR No.009629
Book TitleDhammam Sarnam Pavajjami Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2010
Total Pages339
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Religion
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy