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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-२४ ३२९ से, वेदनाओं से बचने के लिए इधर-उधर भटकने की आवश्यकता नहीं, आप जिनेश्वर की वाणी का सहारा लो। __एकत्व-भावना : जीव अकेला जनमता है, अकेला मरता है। इस भीषण संसारचक्र में अकेला ही शुभ-अशुभ गतियों में भटकता है। अकेला ही सुखदुख अनुभव करता है। तो फिर आत्मकल्याण की साधना अकेले ही कर लेनी चाहिए । 'दूसरा कोई साथी मिले तो धर्म का पुरुषार्थ करूँ,' ऐसी गलत भावना में बहना नहीं। 'मैं अकेला हूँ' ऐसी निराशा अनुभव करना नहीं। 'एकत्व' की भावना को परिपुष्ट करना। अन्यत्व-भावना : 'मैं स्वजनों से भिन्न हूँ, परिजनों से भिन्न हूँ, वैभव से भिन्न हूँ, एवं शरीर से भी भिन्न हूँ,' इस विचार को पुनः पुनः करते रहो। इस विचार से अपनी आत्मा को भावित कर दो। यदि अपने विचारों में यह विचार घुलमिल गया, तो शोक-संताप अपन को सता नहीं सकते। ___ अशुचि-भावना : यह शरीर अशुचि-अपवित्र पदार्थों से भरा हुआ है। अच्छा भी पदार्थ, इस शरीर के संपर्क में आता है, गंदा बन जाता है। अशुचि बन जाता है। ऐसे शरीर से क्या राग करना? ऐसे शरीर से क्या मोह करना? शरीर के रूप-रंग परिवर्तनशील हैं। परिवर्तनशील पदार्थ पर क्या ममत्व करना? संसार-भावना : संसार के सारे के सारे संबंध परिवर्तनशील हैं। कोई संबंध स्थायी नहीं है | माता मरकर पुत्री या भगिनी, पत्नी या माता बन सकती है। पुत्र मरकर पिता बन सकता है, भाई या शत्रु भी बन सकता है। शत्रु मरकर पिता या पुत्र बन सकता है। संसार के ऐसे संबंधों को क्यों और कैसे स्थिर मानें? कैसे ऐसे संबंधों में रागी-द्वेषी बनें? आश्रव-भावना : मिथ्यात्व, अविरति, कषाय, अशुभयोग और प्रमाद-इन पाँच आश्रवों की कैसी भयानकता है? अनन्त-अनन्त कर्मों का प्रवाह इन आश्रवों के द्वारा आत्मा में आ जाता है। आत्मा में कर्मों को प्रवेश करने के ये द्वार हैं। अनन्त जन्मों से ये द्वार खुल्ले हैं... 'मैं अब इस जीवन में इन द्वारों को बन्द कर दूं।' ___ संवर-भावना : मिथ्यात्व को सम्यक्त्व से, अविरति को विरति से, कषाय को क्षमादि धर्मों से, अशुभ-योगों को शुभ योगों से और शुभ योगों को अयोग से तथा प्रमाद को अप्रमत्त भाव से बन्द कर दूँ | इस जीवन का मेरा प्रमुख पुरुषार्थ यही रहेगा। For Private And Personal Use Only
SR No.009629
Book TitleDhammam Sarnam Pavajjami Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2010
Total Pages339
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Religion
File Size2 MB
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