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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-२४ ३३० निर्जरा-भावना : तपश्चर्या करके मैं मेरे कर्मों का क्षय कब करूँगा? बाह्य और आभ्यन्तर तपश्चर्या से ही कर्मों की निर्जरा संभव है। मैं मेरा जीवन तपोमय बना दूं, ताकि विपुल कर्म-निर्जरा होती रहे, मेरी आत्मा विशुद्ध बनती चले। तपश्चर्या के बिना कर्म निर्जरा होती नहीं। __ लोकस्वरूप-भावना : चौदह राजलोक में मेरी आत्मा जन्म-जीवन और मृत्यु द्वारा सतत परिभ्रमण कर रही है। ऊर्ध्वलोक, अधोलोक और मध्यलोक में विविध प्रकार के जीवन पाए हैं मैंने | नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देवगति के जीवन अनन्त बार पाए हैं मैंने । कब इस परिभ्रमण का अन्त आएगा? कब मेरी आत्मा सिद्ध-बुद्ध बनकर सिद्धशिला पर शाश्वत् स्थिति प्राप्त करेगी? धर्मस्वाख्यात-भावना : श्री जिनेश्वर भगवंतों ने विश्व के कल्याण के लिए ही धर्मतत्त्व प्रकाशित किया है। जिनेश्वरों का यह अनुपम उपकार है। जो जीव इस धर्म को अपने हृदय में बसाते हैं वे जीव सरलता से इस भीषण भवसागर को तैर जाते हैं। हे आत्मन्! तू भी इस धर्म की शरण ले ले। ___ बोधिदुर्लभ-भावना : मनुष्य जीवन पाया, कर्मभूमि में जन्म पाया, आर्यदेश में जन्म पाया, उच्चकुल मिला, आरोग्य और इन्द्रियों की पूर्णता पाई, सद्धर्म का श्रवण मिला... फिर भी सर्वज्ञ-वचन पर अविचल श्रद्धा होना दुर्लभ है! जिस भव्यात्मा की श्रद्धा हो जाती है, वह सचमुच धन्य है। ये हैं बारह भावनाएँ। इन भावनाओं में अनित्य, अशरण, एकत्व, अन्यत्व, संसार और अशुचि-भावना का विशेष महत्त्व है। हृदय को निसंग, निर्लेप और निःस्पृह बनानेवाली ये भावनाएँ हैं। ऐसे हृदय में मैत्री, करुणा, प्रमोद और माध्यस्थ्य-भावना के पुष्प बहुत ही अच्छे खिलते हैं। मनुष्य गुणों की सुवास से सुवासित बन जाता है। अपने जीवन को आबाद बनाने के लिए इन भावनाओं से हृदय को सुवासित करें और धर्मपुरुषार्थ में आगे बढ़ें। धर्म का स्वरूपदर्शन कर लिया। धर्म ऐसा होता है। ऐसा धर्म अपने जीवन को धन्य बना सकता है, आत्मा को विशुद्ध कर सकता है। आज हम भावनाओं का विवेचन समाप्त करते हैं। अब आगे धर्म के प्रकारों का वर्णन करेंगे। धर्म के अनेक प्रकार हैं। अपने जीवन में उन विभिन्न प्रकारों को स्थान देना है और आत्मविशुद्धि के मार्ग पर अग्रसर होना है। आज, बस इतना ही। For Private And Personal Use Only
SR No.009629
Book TitleDhammam Sarnam Pavajjami Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2010
Total Pages339
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Religion
File Size2 MB
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