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________________ पाप-पुण्य पाप-पुण्य ६५ और वह अहंकार जाए और 'मैं' जो हूँ वह रियलाइज़ (भान) हो तो हो चुका, फिर कर्म नहीं बँधेगे। फिर जज हो तो भी कर्म नहीं बँधेगे। दानेश्वरी हो तो भी कर्म नहीं बँधेगे। साधु हो तो भी कर्म नहीं बंधेगे और कसाई हो तो भी कर्म नहीं बँधेगे। क्या कहा मैंने? क्यों चौंक गए? कसाई कहा इसलिए? कसाई से पूछो न तो वह कहेगा, साहब मेरे बाप-दादा से चला आया व्यापार है! प्रश्नकर्ता : अहंकार करता है, तभी पुण्य शब्द का प्रयोग होता है और अहंकार करता है, तभी पाप शब्द का प्रयोग होता है। दादाश्री : वह ठीक है। अहंकार करता हो तो ही पाप-पुण्य शब्द का प्रयोग होता है। पर अहंकार इसे थोड़ा बदल देता है, दूसरा कुछ लम्बा इसमें फर्क नहीं लाता। वह तो हो चुकी है वह चीज़ है। वह इट हेपन्स है और नया वापिस हो रहा है। नई फिल्म बन रही है और यह पुरानी फिल्म तो खुल रही है। है तो कौन-सी योनि में अपना जन्म होता है? दादाश्री : जन्म और पाप-पुण्य को लेना-देना नहीं है। जन्म होने के बाद पाप-पुण्य उसे फल देते हैं। योनि किस आधार पर मिलती है? कि 'मैं चंदभाई ही हूँ और यह मैंने किया ऐसा बोले न, उसके साथ ही योनि में बीज पड़ा। अब कर्त्तापन क्यों है? तब कहे, 'करता है कोई और, परशक्ति कार्य कर रही है और खुद ऐसा मानता है कि मैं करता हूँ।' परशक्ति का प्रत्यक्ष प्रमाण क्या है? तब कहे, 'इस जगत् में कोई ऐसा जन्मा नहीं है कि जिसे संडास जाने की स्वतंत्र शक्ति हो। वह तो परशक्ति करवाती है तब होता जब तक अहंकार है तब तक नया चित्रण किए बिना रहता ही नहीं न! हम चाहे जितना समझाएँ पर नया चित्रण किए बिना रहता ही नहीं न। अहंकार क्या नहीं करता? अहंकार से ही यह सब खड़ा हुआ है। यदि अहंकार विलय हो जाए तो मुक्ति है। संबंध, पुण्य और आत्मा का... प्रश्नकर्ता : आत्मा का पुण्य से कोई संबंध है? दादाश्री : कोई संबंध नहीं है। पर जब तक बिलीफ़ ऐसी है कि 'यह मैं कर रहा हूँ', तब तक संबंध है। जहाँ 'मैं नहीं करता हूँ' वह राइट बिलीफ़ बैठ जाए उसके बाद फिर आत्मा का और पुण्य का कोई संबंध नहीं है। मैं दान करता हूँ' 'मैं चोरी करता हँ' दोनों ही इगोइजम है। जहाँ कुछ भी किया जाता है, वहाँ पुण्य बँधता है या पाप बँधता है। अज्ञानता में बाँधे पुण्य-पाप, कर्म प्रश्नकर्ता : पाप से अथवा पुण्य से या फिर दोनों का मिश्रण होता अब यह परशक्ति कैसे उत्पन्न हो गई? तब कहते हैं, हर एक जीव अज्ञानता में पुण्य और पाप दो ही कर सकता है, वह जो पाप-पुण्य करता है, उसके फल स्वरूप कर्म के उदय आते हैं। उन उदय से फिर कर्म लिपटते हैं। अब पुण्य-पाप बँधने का मल कारण क्या है? वह नहीं बँधे ऐसा कोई उपाय है क्या?' तब कहते हैं, 'कर्तापन नहीं हो तब पुण्यपाप नहीं बँधते।''कर्त्तापन किस तरह से नहीं होगा?' तब कहते हैं. "जब तक अज्ञान है, तब तक 'मैं करता हूँ' वह भान है। अब वास्तव में 'कौन कर रहा है?' वह जाने तो कर्त्तापन नहीं होगा।" पुण्य-पाप की जो योजना है, वह यह सब करती है और हम मानते हैं, 'मैंने किया'। फायदा तो हमें वही करवाता है। पुण्य के आधार पर फायदा होता है, तब हम समझते हैं कि 'ओहोहो! मैंने कमाया।' और जब पाप के अधीन होता है, तब नुकसान होता है, तब पता चलता है कि यह तो मेरे अधीन नहीं है। पर वापिस दूसरी बार खुद के पुण्य के अधीन हो न तब भूल जाता है। इसलिए फिर से कर्त्ता बन जाता है। इन पाँच इन्द्रियों से जो कुछ किया जाता है, पाँच इन्द्रियों से जो कुछ अनुभव में आता है, यह जगत् जो चल रहा है वह सारी ही परसत्ता है, और उसमें ये लोग कहते हैं कि 'यह मैंने किया। वह कर्म का कर्ता
SR No.009596
Book TitlePap Punya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherMahavideh Foundation
Publication Year2010
Total Pages45
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Akram Vigyan
File Size268 KB
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