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________________ पाप-पुण्य पाप-पुण्य हुआ, वही अधिकरण क्रिया है। इसलिए फिर भोक्ता होना पड़ता है। अब कर्त्तापन कैसे मिटे? तब कहते हैं, जब तक आरोपित भाव है तब तक कर्त्तापन मिटेगा ही नहीं। खद खद के मल स्वरूप में आ जाए तो कर्त्तापन मिटेगा। वह मूल स्वरूप कैसा है? तब कहे, 'क्रियाकारी नहीं है। वह खुद क्रियाकारी ही नहीं है इसलिए वह कर्ता होगा ही नहीं न!' पर यह तो अज्ञानता से पकड़ बैठा है कि 'यह मैं ही कर रहा हूँ'। ऐसी उसे बेसुधी रहती है और वही आरोपित भाव है। ___अंत में तो परे होना है पाप-पुण्य से... पुण्य, वह क्रिया का फल है, पाप भी क्रिया का फल है और मोक्ष 'अक्रियता' का फल है! जहाँ कोई भी क्रिया है, वहाँ बंध (कर्मबंध) है। वह फिर पुण्य का हो या पाप का, पर बंध है! और 'जाने' वह मुक्ति है। 'विज्ञान' जानने से मुक्ति है। यह सब जो-जो त्यागोगे, उसका फल भोगना पड़ेगा। त्याग करना अपने हाथ की सत्ता है? ग्रहण करना अपनी सत्ता है? वह सत्ता तो पुण्य-पाप के अधीन है। भीतर प्रेरक कौन है? भीतर से जो पता चलता है, इन्फोर्मेशन (सूचना) मिलती हैं, वह पुण्य-पाप बताती हैं। भीतर सारा ही ज्ञान-दर्शन है। भीतर से सभी खबर मिलती है। पर वह कब तक मिलती है कि जब तक आप रोको नहीं। उसका उल्लंघन करो तो इन्फोर्मेशन आनी बंद हो जाएगी। 'ज्ञानी' निमित्त, आत्मप्राप्ति के प्रश्नकर्ता : आत्मा को पहचानने के लिए निमित्त की ज़रूरत है क्या? दादाश्री : निमित्त के बिना तो कुछ भी नहीं होता। प्रश्नकर्ता : निमित्त पुण्य से मिलता है या पुरुषार्थ से? दादाश्री : पुण्य से। बाक़ी, पुरुषार्थ करे न, इस उपाश्रय से उस उपाश्रय दौड़ता फिरे, ऐसे अनंत जन्मों तक भटकता रहे तो भी निमित्त प्राप्त नहीं होगा और अपना पुण्य हो तो रास्ते में मिल जाएँगे। उसके लिए पुण्यानुबंधी पुण्य चाहिए। प्रश्नकर्ता : 'ज्ञानी पुरुष' कौन-से पुण्य के आधार पर मिलते हैं? दादाश्री : पुण्यानुबंधी पुण्य के आधार पर! यह एक ही साधन है कि जिसके कारण मझसे भेंट होगी। कोटि जन्मों की पुण्य जागे, तब यह ज्ञानी पुरुष का योग प्राप्त होता है। पुण्य रूपी साथ मोक्ष का... प्रश्नकर्ता : पुण्य के भाव आत्मार्थ के लिए हितकारी हैं क्या? दादाश्री : वे आत्मा के लिए हितकर इसलिए हैं कि वे पुण्य हो न, तो यहाँ सत्संग में ज्ञानी पुरुष के पास आया जाता है न! नहीं तो इन मजदूरों के पाप हैं, इसलिए उस बेचारे से यहाँ आया कैसे जाए? सारे दिन मेहनत करे, तब तो शाम को खाने के पैसे मिलते हैं। इस पुण्य के आधार पर तो आपको घर बैठे खाने को मिलता है और थोड़ा-बहुत अवकाश मिलता है। इसलिए पुण्य तो आत्मार्थ के लिए हितकारी है। पुण्य हो तो फुरसत मिलती है। हमें ऐसे संयोग मिल जाते हैं, थोड़ी मेहनत से पैसा मिलता है और पुण्य हो तो दूसरे पुण्यशाली लोग मिल जाते हैं, नहीं तो नालायक मिलते हैं। प्रश्नकर्ता : आत्मा के लिए वह अधिक हितकारी है क्या? आत्मा परमात्मा स्वरूप है। वह गलत भी नहीं सुझाता और सही भी नहीं सुझाता है। वह तो पाप का उदय आए तब गलत सझता है और पुण्य का उदय आने पर सही दिखाता है। इसमें आत्मा कुछ भी नहीं करता है। वह तो मात्र स्पंदनों को देखा ही करता है ! एकाग्रता तो अंदर से अपने कर्म के उदय साथ दें तब होती है। उदय साथ नहीं दें तो नहीं होता। पुण्य का उदय हो तो एकाग्रता होती है, पाप का उदय हो तो एकाग्रता नहीं होती।
SR No.009596
Book TitlePap Punya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherMahavideh Foundation
Publication Year2010
Total Pages45
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Akram Vigyan
File Size268 KB
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