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________________ निजदोष दर्शन से... निर्दोष! १०७ चाहिए कभी। अपनी छत है ही न? तो 'आ जाओ, पेमेन्ट कर दें', कहना। तब संपूर्ण हुआ निकाल आप ढीले हो जाएँ तो चीजें सभी अधिक चिपट जाती हैं। और सभी फाइलों का निकाल हो गया, तब फिर परमात्मा ही हो। आपको फाइलें हैं न? प्रश्नकर्ता : हाँ, हाँ। दादाश्री : ऐसा? तब ठीक है। फाइलें हैं, तभी झंझट है न! प्रश्नकर्ता : फाइलों का निकाल कम्पलीट हो गया, ऐसा कब कहलाता है? फाइल पूर्णतया निपट गई, उसका निकाल हो गया ऐसा कब पता चलता है? ऐसा कब कहलाता है? दादाश्री : हमारे मन में नहीं रहे उसके प्रति और उसके मन में हमारे प्रति कुछ नहीं रहे, मतलब कम्पलीट निकाल हो गया। प्रश्नकर्ता : उसके मन में नहीं रहना चाहिए। दादाश्री : रहे तो हमें हर्ज नहीं। हमारे मन में बिलकुल क्लियर हो जाए, तो हो गया। प्रश्नकर्ता : यानी हमें उसके लिए विचार भी नहीं आए, ऐसा? दादाश्री : हाँ। प्रश्नकर्ता : विचार आने भी बंद हो जाएँ, उसके लिए? दादाश्री : हाँ। कहाँ तक मन चोखा हुआ एकाध महात्मा के लिए हमारे विचार उलट-फेर हो गए। भीतर विचार हमें आते नहीं, फिर भी आने लगे उस व्यक्ति के बारे में, इसलिए १०८ निजदोष दर्शन से... निर्दोष ! मैंने जाना कि क्या हुआ अंदर यह फिर से नया? किस कारण से उसके बारे में ये विचार आते हैं?! अच्छा आदमी है और वह बिगड़ गया है कि क्या है यह?! और फिर भीतर से जवाब मिला कि उसके उदय टेढ़े हैं। उसके उदय फेवरेबल नहीं हैं। इसलिए ऐसा दिखता है। इसलिए फिर हम कोमल मनोभाव रखते हैं। क्योंकि मनुष्य के उदय फेवरेबल होते हैं और किसीके फेवरेबल नहीं भी होते हैं। ऐसा होता है न? प्रश्नकर्ता : होता है। दादाश्री : वह तो जगत् में होता ही है। पर यह तो हमें टच होता हो ऐसी बात आए, तो हम एकतरफ मनोभाव कोमल कर देते हैं। प्रश्नकर्ता : मतलब उस तरह की कोमल? वह किस तरह से कर देते हैं, कोमल मनोभाव? दादाश्री : यानी जैसा दिखता है वैसा मानते नहीं हैं फिर। वे तो अच्छे ही हैं। ऐसा समझते हैं। प्रश्नकर्ता : तब व्यवहार में आप फिर क्या करते हैं? दादाश्री: निर्दोष है न! मैंने तो व्यवहार निर्दोष ही देखा हुआ है। दोषित क्यों दिखता है? इसलिए देयर आर कॉज़ेज़ (वहाँ कोई कारण है)। निर्दोष ही देखा है सब। बुद्धि से दोषित है जगत् और ज्ञान से जगत् निर्दोष है। तुम्हें हसबेन्ड निर्दोष नहीं दिखते? प्रश्नकर्ता : दिखते हैं न! दादाश्री : उसके बाद अब फिर गलतियाँ निकालें, उसका क्या अर्थ है? यह भूल तो सिर्फ यह पुतला उस पुतले की भूलें निकाल रहा हो, वह हमें देखते रहना है। तब यह प्रकृति देखनी है। तब तक ऊपरी भीतरवाले भगवान इसमें अन्य किसीका है ही नहीं, वहाँ अपनी ही भूलों का फल हमें भुगतना है। मालिकी अपनी, ऊपरी भी कोई नहीं है, भीतर बैठे हैं
SR No.009595
Book TitleNijdosh Darshan Se Nirdosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherMahavideh Foundation
Publication Year2010
Total Pages83
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Akram Vigyan
File Size48 KB
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