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________________ निजदोष दर्शन से... निर्दोष! १०९ वे भगवान ही हमारे ऊपरी। वही शुद्धात्मा, वही भगवान। बिना फाइल के शुद्धात्मा, वे भगवान कहलाते हैं। और फाइलवाले, वे शद्धात्मा कहलाते हैं। देखो न, आपके फाइलें हैं न? आराम से समझ गए न तुरन्त कि फाइलवाले शुद्धात्मा, वे शुद्धात्मा कहलाते हैं। प्रश्नकर्ता : आप जैसी स्थिति प्राप्त करनी है, दादा। सारी फाइलें हों फिर भी छूएँ नहीं। दादाश्री: मतलब अब फाइल तक आए हैं। अब फाइल का निबटारा कर देना है बस, फिर पूरा हो गया। सारा काम समाप्त हो जाता है। न तो हिमालय में तप करने पड़े, न ही उपवास करने पड़े। हिमालय में तो तप अनंत जन्मों तक करें तब भी कुछ मिले नहीं। उलटे रास्ते, जरा ही उल्टा रास्ता हो, पर उस रास्ते गए तो मूल जगह नहीं आएगी। करोड़ों वर्ष तक घूमते रहें तब भी नहीं आएगी! भिन्नता उन दोनों के जानने में प्रश्नकर्ता : प्रकृति के गुण-दोष जो देखता है, वह देखनेवाला कौन निजदोष दर्शन से... निर्दोष! दादाश्री : हाँ, वह सब लेपित भाग! प्रश्नकर्ता : इस बुद्धि ने प्रकृति का अच्छा-बुरा देखा, वह जो देखता है, जानता है, वह खुद है? दादाश्री : प्रकृति का दोष देखे, तो वह प्रकृति हो गई। आत्मा नहीं है वहाँ पर। आत्मा ऐसा नहीं है। उसे किसीका दोष नहीं दिखता है। प्रश्नकर्ता : एक-दूसरे के दोषों की बात नहीं करते, खुद खुद के दोषों की बात करते हैं। दादाश्री : उस समय प्रकृति ही होती है। पर वह ऊँची प्रकृति है, आत्मा को प्राप्त करानेवाली है। प्रश्नकर्ता : और प्रकृति को निर्दोष देखता है, वह कौन देखता है? दादाश्री : वह प्रकृति को निर्दोष देखता है, वही परमात्मा है, वही शुद्धात्मा है। दूसरे किसीमें हाथ ही नहीं डालता न ! प्रश्नकर्ता : निर्दोष देखने में उसे कैसा आनंद मिलता है? दादाश्री : वह आनंद, वह मुक्तानंद कहलाता है न! प्रश्नकर्ता : यानी परिणाम के बारे में कुछ बोलता ही नहीं। दादाश्री : परिणाम को, प्रकृति के परिणाम को देखता ही नहीं। दो प्रकार के पारिणामिक ज्ञान है। एक है, वह प्रकृति का पारिणामिक ज्ञान है और एक आत्मा का पारिणामिक ज्ञान है। प्रश्नकर्ता : पर वह जैसा है वैसा देखने में कौन-सा स्वाद चख रहा है? दादाश्री : वह तो उसने आंनद चख लिया होता है न, पर वह क्या कहता है, मुझे आनंद की कुछ पड़ी नहीं है, मझे तो यह जैसा है वैसा देखने की पड़ी है। इसलिए हम क्या कहते हैं कि 'जैसा है वैसा' देखो न! वह सबसे अंतिम बात है! दादाश्री : वही प्रकृति है। प्रश्नकर्ता : प्रकृति का कौन-सा भाग देखता है? दादाश्री : वह बुद्धि का भाग है, अहंकार का भाग है। प्रश्नकर्ता : तो फिर इसमें मूल आत्मा का क्या काम है? दादाश्री : मूल आत्मा को क्या?! उसे लेना-देना ही नहीं है न ! प्रश्नकर्ता : मूल आत्मा का देखना-जानना किस तरह होता है? दादाश्री : वह निर्लेप होता है और यह तो लेपित है। प्रश्नकर्ता : यानी अच्छा-बुरा देखता है, वह लेपित भाग है?
SR No.009595
Book TitleNijdosh Darshan Se Nirdosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherMahavideh Foundation
Publication Year2010
Total Pages83
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Akram Vigyan
File Size48 KB
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