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________________ १०५ १०६ निजदोष दर्शन से... निर्दोष! प्रश्नकर्ता : यदि किसीकी भी भूल निकाली, देट मीन्स... दादाश्री : किसीकी भी भूल निकालनी वह तो सबसे बड़ा गुनाह है क्योंकि यह जगत् निर्दोष है। और यह ज्ञानगम्य कहलाता है प्रश्नकर्ता : पर दादा, हम इसे डिस्चार्ज की तरह देखते हैं कि यह देखो चंदूभाई गलत भूल निकाल रहे हैं किसीकी, उसे देखता है, वह क्या है तब? दादाश्री : वह चंदूभाई जो देखते हैं भल निकालते समय. वह देखते हैं, वह बुद्धिगम्य है। प्रश्नकर्ता : नहीं, यानी यह चंदूभाई, चंदूभाई को देखते हैं, वह बुद्धिगम्य है? दादाश्री : हाँ, वह बुद्धिगम्य है। और वह दूसरा ज्ञानगम्य कब कहलाता है कि किसीकी भूल निकाले नहीं और देखे तब ज्ञानगम्य कहलाता है। प्रश्नकर्ता : हाँ, पर दादा, दैनिक व्यवहार में कभी कहना तो पड़ता है कि 'यह चीज़ ठीक नहीं है।' दादाश्री : पर 'कहना पड़ता है वह नियम नहीं है। कह दिया जाता है, ऐसी निर्बलता होती ही है। हम भी किसीको, मेरे साथ रहते हों न, उसे कहते हैं कि 'यह किसलिए भूल की फिर से?' ऐसा कहते हैं। पर कह दिया जाता है, क्या समझे? ऐसी थोड़ी निर्बलता भरी पड़ी होती है सभी में। मगर ऐसा हमें समझना चाहिए कि 'यह भल हो गई, ऐसा नहीं होना चाहिए।' .......उसे खुद ऐसा मानना चाहिए कि यह गलत है, तो भूलें निकालने की आदत, वह धीरे-धीरे डिस्चार्ज होती-होती खतम हो जाएगी। वह डिस्चार्ज हो रहा है सब। निजदोष दर्शन से... निर्दोष! खुद की भूलों को खुद ही डाँटे हर एक अड़चन जो आती है न, पहले सहन करने की ताकत आती है, बाद में अड़चनें आती हैं। नहीं तो मनुष्य वहीं का वहीं खतम हो जाए। मतलब कानून ऐसे हैं सब। प्रश्नकर्ता : दादा, वह 'व्यवस्थित शक्ति' करती है? दादाश्री : उसका नाम ही 'व्यवस्थित'। इसलिए ऐसे संयोग खडे होकर फिर है तो, शक्ति भी उत्पन्न होगी, नहीं तो वह मनुष्य क्या से क्या हो जाए! इसलिए किसी भी प्रकार से घबराने का कोई कारण नहीं है। अपने तो दादा हैं और मैं हूँ, बस, दूसरा कुछ नहीं है इस दुनिया में। दादा हैं और मैं हूँ, दो ही। दादा जैसी दरअसल खुमारी रहनी चाहिए। कोई बाप भी ऊपरी नहीं है ऐसा। ऊपरी के भी ऊपरी कहा, दादा को! प्रश्नकर्ता : दादा, हमें तो हमारी भूलें अभी भी डराती हैं न? दादाश्री : हाँ, डराएँगी। प्रश्नकर्ता : हाँ, आपकी स्थिति तक पहुँचते-पहुँचते तो... दादाश्री : भूलें डराती हैं न! फिर भी हम समझते हैं न, कि यह कौन डराता है? ऐसा हम जानते हैं। पर मूल तो हैं, दादा ही हैं न हम? उसमें अंतर नहीं है न? एक के एक ही हैं न? हमारे पार्टनर, वे एक बार मुझसे कहते हैं, 'दो-तीन अडचनें अभी आई हैं, वे बड़ी भारी अड़चनें आई हैं।' मैंने कहा, 'जाओ, छत पर जाकर बोलो कि भाई, दो-तीन अड़चनें आई हैं और दादाई बैंक खोला है हमने, इसलिए दूसरे जो हों वो आ जाओ ताकि पेमेन्ट कर दूं, कहना। क्या कहा? पहले बैंक नहीं था, इसलिए मुझे परेशानी थी। अब बैंक है मेरे पास, दादाई बैंक। जितनी भी हों, वे सब मिलकर आओ, कहना।' वे भी छत पर जाकर बोले सही, मेरे शब्द। ऊँची आवाज़ में बोले कि, 'जो हों, वो सब आ जाओ। मुझे पेमेन्ट करना है।' हाँ, भीतर हाय-हाय... जूं पड़ें तो ऐसे कोई धोती निकालने से चलता होगा क्या? इसलिए ऐसा कहना
SR No.009595
Book TitleNijdosh Darshan Se Nirdosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherMahavideh Foundation
Publication Year2010
Total Pages83
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Akram Vigyan
File Size48 KB
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