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________________ निजदोष दर्शन से... निर्दोष! हुई है और उसके लिए आए हैं। दादाश्री : उस ज्ञान के लिए भवोभव इच्छा होती है, पर सच्चा नियाणां नहीं किया। यदि नियाणां किया होता न तो सभी पुण्य उसीमें खर्च हो जाता है। नियाणां का स्वभाव क्या? तब कहे कि जितना आपका पुण्य हो, वह निया' के लिए ही खर्च हो जाता है। यह तो घर में पुण्य खर्च हो गया, देह में पुण्य खर्च हो गया, सभी में पुण्य खर्च हो गया, मोक्ष का नियाणां नहीं किया था न ! मोक्ष का नियाणां किया होता तो सारा पुण्य उसमें खर्च हो जाता। देखो न हम मोक्ष का नियाणां करके आए थे, इसलिए सब सीधा चल रहा है न? कुछ अड़चनें होंगी तो मिलमालिकों को अडचनें होंगी, प्रधानमंत्री को होंगी, पर हमें कोई अड़चन नहीं है। भूल बिना का ज्ञान और समझ प्रश्नकर्ता : भूल बिना का ज्ञान और भूल बिना की समझ होगी तो तू खुद ही मोक्ष स्वरूप है। कितनी अधिक ऊँची बात कह दी। आरोपित भाव, वही मूलतः भूल है, बंधन है! दादाश्री : हाँ, और यह विज्ञान प्रकट नहीं हो, तब तक ऐसा स्पष्टीकरण ही नहीं मिलता न! शास्त्रों में ऐसा स्पष्टीकरण ही नहीं होता है न! केवल शुभ करो, कुछ शुभ करो कहेंगे, पर आरोपित भाव है ऐसा तो कोई समझाता करता नहीं है। क्योंकि ज्ञानी पुरुष के बिना ऐसा स्पष्टीकरण मिलता नहीं है। लोगों को बुद्धि में समझ में आ गया होता है कि यह कुछ भूल है, बहुत बड़ी भूल हो रही है, ऐसा समझ में आता है, पर फिर भी ज्ञानी पुरुष नहीं मिलें तो करें क्या फिर? यों ही आम उबलता रहता है। लोग समझदार बहुत हैं, इसलिए बुद्धि में सभी समझकर सार निकालते हैं कि यह क्या है? पर फिर भी उबलते रहते हैं। और ज्ञानी पुरुष मिल जाएँ तो सारे स्पष्टीकरण दे देते हैं। हर एक शब्द का स्पष्टीकरण नहीं हो तो ५० निजदोष दर्शन से... निर्दोष! वह ज्ञानी पुरुष नहीं। स्पष्टीकरण होने ही चाहिए। अज्ञान से स्पष्टीकरण मिलता हो तो अज्ञान क्या कम था? अज्ञान भी कहाँ नहीं था हमारे घर? स्टोक भरकर था न! काफी है बैठनी प्रतीति भूल की ये लोग कहते हैं कि अब हमने हमारे दोष हैं, वे जान लिए। पर अब निकाल दीजिए। आप हमें मारिए-करिए, जो करना हो वह कीजिए, पर दोष निकाल दीजिए। अब इसके लिए क्या रास्ता है?! दोष किस तरह पैठा, वह आप खोजो। उसके बाद पता चलेगा, दोष निकलेंगे किस तरह? पैठा उस घड़ी उसे डालना नहीं पड़ता। इसलिए, निकालते समय निकालना नहीं पड़ता। जो चीज़ डाली हो वह निकालनी पड़ती है। ये तो मुझे कहते हैं, 'दोष निकाल दीजिए!' अरे लेकिन वे किससे पैठ गए? तब कहे, 'एक मनुष्य ऐसे कसंग में गया, उससे उसे विश्वास हो गया कि ये मज़े कर रहे हैं और यह रास्ता बहुत अच्छा है। बहुत अच्छा सुखदाई है।' उसे उस ज्ञान पर श्रद्धा बैठ गई, प्रतीति बैठ गई। उसी तरह मैं इन्हें क्या करता हूँ? जो उनकी भूलें हैं, वे नकारते हैं कि 'हममें बिलकुल ही भूल नहीं हैं वैसी, लोगों में भूलें हैं।' वे उनकी भूलें उन्हें दिखाता हूँ। फिर उन्हें प्रतीति बैठती है हंड्रेड परसेन्ट (सौ प्रतिशत), कि ये सब भूलें ही हैं। वह हम एक्सेप्ट (स्वीकार) करते हैं। 'यह भूल अब आप निकाल दीजिए', कहते हैं। मैंने कहा, 'अब निकालना नहीं होता। प्रतीति बैठ गई, उसका मतलब यह कि भूल निकलनी शुरू हो गईं। तुझे केवल मन खुला रखना है कि भाई, आप चले जाओ। बस, इतना ही बोलने की ज़रूरत है।' प्रतीति बैठने से ही भल चली जाती है और प्रतीति बैठने से भूल पैठ जाती है। डालना-निकालना नहीं होता वह तो। यह क्या कोई कारखाना है? यानी एक भूल निकालनी हो तो कितना समय लगता है फिर। कितने ही जन्म निकल जाते हैं। समझ में आए ऐसी बात है न यह सब?! प्रतीति, उसमें दाग़ नहीं पड़ना चाहिए।
SR No.009595
Book TitleNijdosh Darshan Se Nirdosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherMahavideh Foundation
Publication Year2010
Total Pages83
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Akram Vigyan
File Size48 KB
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