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________________ १. जीवन जीने की कला सिखलाओ। मैं किस तरह चलूँ, तो वह कला सीख सकता हूँ? उसके कलाधर चाहिए, उसका कलाधर होना चाहिए, उसका गुरु होना चाहिए। पर इसकी तो किसी को पड़ी ही नहीं न ! जीवन जीने की कला की तो बात ही उड़ाकर रखी है न? हमारे पास यदि कोई रहता हो तो उसे यह कला मिल जाए। फिर भी, पूरे जगत् को यह कला नहीं आती ऐसा हमसे नहीं कहा जा सकता। परन्तु यदि कम्पलीट जीवन जीने की कला सीखे हुए हों न तो लाइफ इजी रहे, परन्तु धर्म तो साथ में चाहिए ही जीवन जीने की कला में धर्म मुख्य वस्तु है। और धर्म में भी दूसरा कुछ नहीं, मोक्षधर्म की भी बात नहीं, मात्र भगवान की आज्ञारूपी धर्म पालना है। महावीर भगवान या कृष्ण भगवान या जिस किसी भगवान को आप मानते हों, उनकी आज्ञाएँ क्या कहना चाहती हैं, वे समझकर पालो । अब सभी न पाली जाएँ तो जितनी पाली जा सकें, उतनी सच्ची अब आज्ञा में ऐसा हो कि ब्रह्मचर्य पालना और हम शादी करके ले आएँ तो वह विरोधाभास हुआ कहलाएगा। असल में वे ऐसा नहीं कहते कि आप ऐसा विरोधाभासवाला करना। वे तो ऐसा कहते हैं कि तेरे से जितनी हमारी आज्ञाएँ एडजस्ट हों, उतनी एडजस्ट कर। अपने से दो आज्ञाएँ एडजस्ट नहीं हुई तो क्या सभी आज्ञाएँ रख देनी चाहिए? अपने से होता नहीं, इसीलिए क्या हमें छोड़ देना चाहिए? आपको कैसा लगता है? कोई दो नहीं पाल सकते तो दूसरी दो आज्ञाएँ पाल सकें तब भी बहुत हो गया। लोगों को व्यवहारधर्म भी इतना ऊँचा मिलना चाहिए कि जिससे लोगों को जीवन जीने की कला आए। जीवन जीने की कला आए उसे ही व्यवहारधर्म कहा है। कोई तप, त्याग करने से वह कला आती नहीं है। यह तो अजीर्ण हुआ हो, तो कुछ उपवास जैसा करना। जिसे जीवन जीने की कला आ गई उसे तो पूरा व्यवहारधर्म आ गया, और निश्चयधर्म तो डेवलप होकर आए हों, तो प्राप्त होता है और इस अक्रम मार्ग में तो निश्चयधर्म ज्ञानी की कृपा से ही प्राप्त हो जाता है! 'ज्ञानी पुरुष' के पास तो अनंत ज्ञानकलाएँ होती हैं और अनंत प्रकार की बोधकलाएँ होती हैं ! वे कलाएँ इतनी सुंदर होती हैं कि सर्व प्रकार के दुःखों से मुक्त करती हैं। क्लेश रहित जीवन समझ कैसी? कि दुःखमय जीवन जीया ! 'यह' ज्ञान ही ऐसा है कि जो सीधा करे और जगत् के लोग तो हमने सीधा डाला हो, फिर भी उल्टा कर देते हैं। क्योंकि समझ उल्टी है। उल्टी समझ है, इसीलिए उल्टा करते हैं, नहीं तो इस हिंदुस्तान में किसी जगह पर दुःख नहीं हैं? ये जो दुःख हैं वे नासमझी के दुःख हैं और लोग सरकार को कोसते हैं, भगवान को कोसते हैं कि ये हमें दुःख देते हैं! लोग तो बस कोसने का धंधा ही सीखे हैं। अभी कोई नासमझी से, भूल से खटमल मारने की दवाई पी जाए तो वह दवाई उसे छोड़ देगी? प्रश्नकर्ता: नहीं छोड़ेगी। दादाश्री : क्यों, भूल से पी ली थी न? जान-बूझकर नहीं पी फिर भी वह नहीं छोड़ेगी? प्रश्नकर्ता: नहीं। उसका असर नहीं छोड़ेगा । दादाश्री : अब उसे मारता है कौन? वह खटमल मारने की दवाई उसे मारती है, भगवान नहीं मारता, यह दुःख देना या दूसरी कोई वस्तु करनी वह भगवान नहीं करता, पुद्गल ही दुःख देता है । यह खटमल की दवाई भी पुद्गल ही है न? हमें इसका अनुभव होता है या नहीं होता? इस काल के जीव पूर्वविराधक वृत्तियोंवाले हैं, पूर्वविराधक कहलाते हैं। पहले के काल के लोग तो खाने-पीने का नहीं हो, कपड़े-लत्ते नहीं हों, फिर भी चला लेते थे, और अभी तो कोई भी कमी नहीं, फिर भी इतनी अधिक कलह ही कलह ! उसमें भी पति को इन्कम टैक्स, सेल्स टैक्स के लफड़े होते हैं, इसीलिए वहाँ के साहब से वे डरते हैं और घर पर बाईसाहब को पूछें कि आप क्यों डरती हो? तब वह कहे कि मेरे पति सख्त हैं। चार वस्तुएँ मिली हों और कलह करें, वे सब मूर्ख, फूलिश कहलाते हैं। टाइम पर खाना मिलता है या नहीं मिलता? फिर चाहे जैसा हो, घी
SR No.009589
Book TitleKlesh Rahit Jivan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherMahavideh Foundation
Publication Year2010
Total Pages85
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Akram Vigyan
File Size51 KB
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