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________________ १. जीवन जीने की कला वाला या बिना घी का, पर मिलता है न? टाइम पर चाय मिलती है या नहीं मिलती? फिर दो टाइम हो या एक टाइम, पर चाय मिलती है या नहीं मिलती? और कपड़े मिलते है या नहीं मिलते? कमीज़-पेन्ट, सर्दी में, ठंड में पहनने को कपड़े मिलते हैं या नहीं मिलते? पड़े रहने के लिए कोठड़ी है या नहीं? इतनी चार वस्तुएँ मिलें और फिर शोर मचाएँ, उन सभी को जेल में डाल देना चाहिए! फिर भी उसे शिकायत रहती हो तो उसे शादी कर लेनी चाहिए। शादी की शिकायत के लिए जेल में नहीं डाल देते। इन चार वस्तुओं के साथ इसकी ज़रूरत है। उमर हो जाए, उसे शादी के लिए मना नहीं कर सकते। पर इसमें भी, कितने ही शादी हो गई हो और उसे तोड़ डालते हैं, और फिर अकेले रहते हैं और दुःख मोल लेते हैं। हो चुकी शादी को तोड़ डालते हैं, किस तरह की पब्लिक है यह?! ये चार-पाँच वस्तुएँ न हों तो हम समझें कि इसे ज़रा अडचन पड़ रही है। वह भी दु:ख नहीं कहलाता, अड़चन कहलाता है। यह तो सारा दिन दुःख में निकालता है, सारा दिन तरंग (शेखचिल्ली जैसी कल्पनाएँ) करता ही रहता है। तरह-तरह के तरंग करता रहता है! एक व्यक्ति का मुँह ज़रा हिटलर जैसा था, उसका नाक ज़रा मिलता-जुलता था। वह अपने आपको मन में खुद मान बैठा था कि हम तो हिटलर जैसे हैं ! घनचक्कर ! कहाँ हिटलर और कहाँ तू? क्या मान बैठा है? हिटलर तो यों ही आवाज़ दे, तो सारी दुनिया हिल उठे! अब इन लोगों के तरंगों का कहाँ पार आए? इसलिए वस्तु की कोई जरूरत नहीं है, यह तो अज्ञानता का दुःख है। हम 'स्वरूपज्ञान' देते हैं, फिर द:ख नहीं रहते। हमारे पाँच वाक्यों में आप कहाँ नहीं रहते, उतना ही बस देखते रहना है! अपने टाइम पर खाना खाने का सब मिलता रहेगा। और वह फिर 'व्यवस्थित है। यदि दाढ़ी अपने आप उगती है तो क्या तुझे खाने-पीने का नहीं मिलेगा? इस दाढ़ी की इच्छा नहीं है, फिर भी वह बढती है न! अब आपको अधिक वस्तुओं की ज़रूरत नहीं है न? अधिक वस्तुओं की देखो न कितनी सारी उपाधी है! आपको स्वरूपज्ञान मिलने से पहले तरंगें आती थीं न? क्लेश रहित जीवन तरंगो को आप पहचानते हो न? प्रश्नकर्ता : जी हाँ, तरंगें आती थीं। दादाश्री : भीतर तरह-तरह की तरंगें आया करती हैं, उन तरंगों को भगवान ने आकाशी फूल कहा है। आकाशी फूल कैसा था और कैसा नहीं था? उसके जैसी बात! सभी तरंग में और अनंग में, दो में ही पड़े हुए हैं। ऐसे, सीधी धौल (हथेली से मारना) नहीं मारते हैं। सीधी धौल मारें वह तो पद्धतिपूर्वक का कहलाता है। भीतर 'एक धौल लगा दूंगा' ऐसी अनंग धौल मारता रहता है। जगत् तरंगी भूतों में तड़पता रहता है। ऐसा होगा तो, ऐसा होगा और वैसा होगा। ऐसे शौक की कहाँ ज़रूरत है? जगत् पूरा 'अन्नेसेसरी' परिग्रह के सागर में डूब गया है। 'नेसेसरी' को भगवान परिग्रह कहते नहीं हैं। इसलिए हरएक को खुद की नेसेसिटी कितनी है, यह निश्चित कर लेना चाहिए। इस देह को मुख्य किसकी ज़रूरत है? मुख्य तो हवा की। वह उसे हर क्षण फ्री ऑफ कॉस्ट मिलती ही रहती है। दूसरा, पानी की जरूरत है। वह भी उसे फ्री ऑफ कॉस्ट मिलता ही रहता है। फिर ज़रूरत खाने की है। भूख लगती है मतलब क्या कि फायर हुई, इसीलिए उसे बुझाओ। इस फायर को बझाने के लिए क्या चाहिए? तब ये लोग कहते हैं कि 'श्रीखंड, बासुंदी!' अरे नहीं, जो हो वह डाल दे न अंदर। खिचड़ी-कढ़ी डाली हो तब भी वह बुझ जाती है। फिर सेकन्डरी स्टेज की ज़रूरत में पहनने का, पडे रहने का वह है। जीने के लिए क्या मान की ज़रूरत है? यह तो मान को ढूंढता है और मूर्च्छित होकर फिरता है। यह सब 'ज्ञानी पुरुष' के पास से जान लेना चाहिए न? ___एक दिन यदि नल में चीनी डाला हुआ पानी आए तो लोग ऊब जाएँ। अरे! ऊब गए? तो कहे, 'हाँ, हमें तो सादा ही पानी चाहिए।' ऐसा यदि हो न तो उसे सच्चे की क़ीमत समझ में आए। ये लोग तो फेन्टा और कोकाकोला खोजते हैं। अरे, तुझे किसकी ज़रूरत है वह जान ले न! शुद्ध हवा, शुद्ध पानी और रात को खिचड़ी मिल गई तो यह देह शोर
SR No.009589
Book TitleKlesh Rahit Jivan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherMahavideh Foundation
Publication Year2010
Total Pages85
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Akram Vigyan
File Size51 KB
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