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________________ आत्मबोध आत्मबोध दादाश्री : ये लिफ्ट मार्ग है। इसमें तप-त्याग कुछ करना नहीं पड़ता। सिर्फ हमारी आज्ञा में ही रहना पड़ता है। ये आज्ञा संसार में किसी तरह अड़चन नहीं करती। एक या दो जन्म में मोक्ष हो जाता है। लेकिन पहला मोक्ष यहाँ ही, इस मनुष्य जन्म में ही होता है। मोक्ष, याने सभी दुःखों का अभाव होना चाहिये। पहला मोक्ष ये है, फिर सब कर्म पूरे हो गये तो सिद्धगति में चला जाता है, वो दूसरा (अंतिम) मोक्ष है। आत्मा है और वो मोक्ष के 'लायसन्सदार' हैं। मोक्ष प्राप्त करने के लिए दो मार्ग हैं। एक क्रमिक मार्ग है और दूसरा अक्रम मार्ग है। चौबीस तीर्थंकरों का जो सायन्स था. वो क्रमिक था। ऋषभदेव भगवान के पास क्रमिक और अक्रम - दोनों मार्ग का ज्ञान था। ऋषभदेव भगवान ने भरत चक्रवर्ती को राज चलाने को कहा था। तब भरत राजा बोलने लगे कि, 'हमारे को भी मोक्ष में जाने का विचार है। हमें भी दीक्षा दे दो। हमको ये चक्रवर्ती का राज नहीं चाहिये।' लेकिन भगवान ने कहा कि, 'नहीं, आपको राज करना पड़ेगा, लड़ाई करनी पड़ेगी, आप निमित्त हो। तो आप राज करो, लड़ाई करो, लेकिन आपको ऐसा ज्ञान दूंगा कि ये सब करते करते भी आपका मोक्ष एक क्षण भी नहीं जायेगा।' वो 'अक्रम विज्ञान' दिया था। तेरहसौ रानियाँ थी. चक्रवर्ती का राज था, लेकिन उनको एक भी कर्म नहीं लगता था। आपको कितनी रानियाँ है? प्रश्नकर्ता : एक ही है। दादाश्री : एक ही रानी है फिर भी उसके साथ झगड़ा होता है?! ऋषभदेव भगवान के वक्त में जो अक्रम मार्ग था, वो ही ये अक्रम मार्ग है, लेकिन अभी उदय आया है और हम उसके निमित्त है। ये 'अक्रम विज्ञान' है। बड़ा सिद्धांत है। भगवान का ज्ञान है, वो ही ये ज्ञान है। प्रकाश तो वो ही है लेकिन मार्ग अलग है। भगवान का 'क्रमिक मार्ग' था, ये 'अक्रम मार्ग' है। क्रमिक मार्ग याने स्टेप बाय स्टेप चढ़ने का। जितना परिग्रह कम कर दिया, उतने स्टेप उपर चढ़ गया और दस हजार स्टेप चढ़ गया तो फिर कोई पहचानवाला मिल गया कि चलो इधर केन्टीन में, तो फिर तीन हजार स्टेप नीचे ऊतर जाता है। ऐसे मोक्ष में जाने के लिए स्टेप चढ़ते-उतरते, चढते-उतरते आगे जाने का। लेकिन मोक्ष में जाने का पूरा रस्ता नहीं मिलता। ये तो लिफ्ट मार्ग निकला है। आपको कौन सा मार्ग पसंद है? सीढ़ी या लिफ्ट ? प्रश्नकर्ता : लिफ्ट ही पसंद आये न? __ 'अक्रम मार्ग' से एक घंटे में आपके सभी पाप भस्मीभूत हो जाते हैं, दिव्यचक्षु मिल जाते हैं और आत्मज्ञान भी मिल जाता है। मुक्तिसख इधर से ही चालू हो जाता है। आप सर्विस भी कर सकते हैं, औरत के साथ घूम-फिर भी सकते हैं, सिनेमा में भी जा सकते हैं !!! संसार आपका ड्रामेटिक चलेगा। और ड्रामेटिक को द्वंद्वातीत बोला जाता है। क्रमिक मार्ग में सब का त्याग (खुद को) करना पडता है। परिग्रह कम करते करते जाना पड़ता है। सब बाह्य परिग्रह खलास हो जाता है, फिर अंदर क्रोध-मान-माया-लोभ का एक भी परमाणु नहीं रहता है। अहंकार में भी एक परमाणु क्रोध-मान-माया-लोभ का नहीं रहता है और संपूर्ण शुद्ध अहंकार होता है, तब 'शुद्धात्मा पद' प्राप्त होता है। 'अक्रम मार्ग' में तो (ज्ञानी पुरुष की कृपा से) एक घंटे में ही तुम्हारे सब क्रोध-मान-माया-लोभ खलास हो जाते हैं और अहंकार संपूर्ण शुद्ध हो जाता है, तब ही आपको निरंतर 'मैं शुद्धात्मा हूँ' ऐसा लक्ष्य में बैठ जाता है!!! 'अक्रम मार्ग' दस लाख साल में एक दफे निकलता है। इसमें जिसको टिकट मिल गई, उसका काम हो गया। प्रश्नकर्ता : लेकिन जो आसानी से मिलता है. उसकी किंमत भी नहीं रहती है न? दादाश्री : लेकिन ये इतनी आसानी से भी मिलता नहीं है न? इसके लिए बहुत पुण्यै की जरूरत है। इसकी टिकट भी लिमिटेड है। ये ज्ञान पब्लिक के लिए नहीं है, प्राइवेट है। टिकट पूरा होने के बाद
SR No.009577
Book TitleAtmabodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Foundation
Publication Year2003
Total Pages41
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Akram Vigyan
File Size91 KB
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