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________________ आप्तवाणी - १ ५७ सर्जन - विसर्जन खुद ब्रह्म, और रात में चद्दर ओढ़कर सो गया ! फिर तरह-तरह की योजना बनाता हैं। उस समय ब्रह्मा होकर सर्जन करता है। विसर्जन उसके हाथों में नहीं है। विसर्जन नेचर के हाथों में है। विसर्जन होता है, तब वह भ्रमित पद में आता है, और बावला और व्याकुल हो जाता है। योजना बनाई, विचार आया, और उसमें तन्मयाकार हुआ, वह सर्जन, और रूपक में आए, वह विसर्जन । विसर्जन को कोई बाप भी बदल नहीं सकता। यदि विसर्जन खुद के हाथों में होता, तो कोई अपनी पसंद बिना का होने ही नहीं देता । पसंद ही रूपक में लाता। पर विसर्जन परसत्ता में है, व्यवस्थित के हाथों में है। वहाँ किसी की नहीं चलती। इसलिए सर्जन सीधा रहकर करना । यदि एक बार ब्रह्मा बन बैठा, तो कभी भी ब्रह्मपद नहीं मिलनेवाला । हाँ, ज्ञानी से मिले, तब ज्ञानी पुरुष उसकी जगत्निष्ठा छुड़ाकर एक ही घंटे में उसे ब्रह्मनिष्ठा में स्थित कर दें। वे ब्रह्मनिष्ठ बना दें, फिर तो वह ब्रह्मपद में ही निरंतर रहा करता हैं । अतः वह नया सर्जन नहीं करता, और जो देह है, उसका विसर्जन हो जाता है । मनुष्य जन्म सर्जनात्मक है। उसमें से ही सारी गतियों का सर्जन होता है और मोक्ष भी यहीं से प्राप्त हो सके ऐसा है। पुरुष और प्रकृति सारा संसार प्रकृति को समझने में फँसा है। पुरुष और प्रकृति को तो अनादि से खोजते आए हैं। पर वे ऐसे हाथ में आएँ, ऐसे नहीं हैं। क्रमिकमार्ग में पूरी प्रकृति को पहचानें, उसके बाद में पुरुष की पहचान होती है। उसका तो अनंत जन्मों के बाद भी हल निकले ऐसा नहीं है। जब कि अक्रममार्ग में ज्ञानी पुरुष सिर पर हाथ रखें, तो खुद पुरुष होकर सारी प्रकृति को समझ जाता है। फिर दोनों सदा के लिए अलग-अलग ही रहते हैं। प्रकृति की भूलभूलैया में अच्छे-अच्छे फँसे हुए हैं, और वे करते भी क्या ? प्रकृति के द्वारा प्रकृति को पहचानने आप्तवाणी - १ जाते हैं न, इसलिए कैसे पार पाएँ? पुरुष होकर प्रकृति को पहचानना है, तभी प्रकृति का हर एक परमाणु पहचाना जाता है। ५८ प्रकृति अर्थात् क्या? प्र= विशेष और कृति = किया गया। स्वाभाविक की गई वस्तु नहीं। पर विभाव में जाकर, विशेष रूप से की गई वस्तु, वही प्रकृति है । प्रकृति तो स्त्री है, स्त्री का स्वरूप है और 'खुद' (सेल्फ) पुरुष है। कृष्ण भगवान ने अर्जुन से कहा कि त्रिगुणात्मक से परे हो जा, अर्थात् त्रिगुण, प्रकृति के तीन गुणों से मुक्त ऐसा, 'तू' पुरुष हो जा। क्योंकि प्रकृति के गुणों में रहेगा, तो 'तू' अबला है और पुरुष के गुण में रहा, तो 'तू' पुरुष है। 'प्रकृति लट्टू स्वरूप है।' लट्टू यानी क्या? डोरी लिपटती है, वह सर्जन, डोरी खुले, तब घूमता है, वह प्रकृति । डोरी लिपटती है, तब कलात्मक ढंग से लिपटती है, इसलिए खुलते समय भी कलात्मक ढंग से ही खुलेगी । बालक हो, तब भी खाते समय निवाला मुँह में डालने के बजाय कान में डालता है? सॉपिन मर गई हो, तब भी उसके अंडे टूटने पर उनमें से निकलनेवाले बच्चे निकलते ही फन फैलाकर मारना शुरू कर देंगे, तुरंत ही । इसके पीछे क्या है? यह तो प्रकृति का अजूबा है। प्रकृति का कलामय कार्य, एक अजूबा है। प्रकृति इधर-उधर कब तक होती है? उसकी शुरूआत से ज्यादा से ज्यादा इधर-उधर होने की लिमिट है। लट्टू का घूमना भी उसकी लिमिट में ही होता है। जैसे कि, विचार उतनी ही लिमिट में आते है। मोह होता है, वह भी उतनी लिमिट में ही होता है। इसलिए प्रत्येक जीव की नाभि, सेन्टर है और वहाँ आत्मा आवृत्त नहीं है। वहाँ शुद्ध ज्ञानप्रकाश रहा हुआ है। यदि प्रकृति लिमिट के बाहर जाए, तो वह प्रकाश आवृत्त हो जाता है और पत्थर हो जाता है, जड़ हो जाता है। पर ऐसा होता ही नहीं है। लिमिट में ही रहता है। यह मोह होता है, इसलिए उसका आवरण छा जाता है। चाहे जितना मोह टॉप पर पहुँचा हो, पर उसकी लिमिट आते ही फिर नीचे उतर जाता है। यह सब नियम से ही होता है। नियम के बाहर नहीं होता।
SR No.009575
Book TitleAptavani 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherMahavideh Foundation
Publication Year2009
Total Pages141
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Akram Vigyan
File Size42 KB
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