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________________ आप्तवाणी-१ 48 आप्तवाणी-१ बावजूद भी प्राप्ति नहीं होती। इन मज़दूरों को कठोर महेनत करनी पड़ती है, ऊपर से गालियाँ सुनते हैं, फिर भी पैसे नहीं मिलते। मिलें, तो भी घर जाकर खाना मिलेगा या नही इसका कोई ठिकाना नहीं होता। वे सबसे ज्यादा प्रयत्न करते हैं फिर भी प्राप्ति नहीं होती। कितने ही लोग कहते हैं कि अनजाने में पाप हो जाएँ, तो उसका फल कुछ भी नहीं आता। नहीं क्यों आता? अरे. अनजाने में अंगारों पर हाथ रख दें, तब पता चलेगा कि फल आता है या नहीं? जान-बूझकर किया गया पाप और अनजाने में किया गया पाप, दोनों समान हैं। पर अनजाने में किए गए पाप का फल अनजाने में, और जान-बूझकर किए गए पाप का फल जानते हुए भुगतना पड़ता है। दोनो में इतना ही अंतर है। उदाहरणार्थ, दो भाई हैं। एक सोलह साल का और दूसरा दो साल का। उनकी माँ मर गई। अत: दोनों को पाप का फल भुगतना पड़ा, पर बड़े को जानकर भुगतना पड़ा और छोटे ने अनजाने में भुगत लिया। अनजाने में पुण्य भी होता है। उदाहरणार्थ, आप राशन में चार घंटे लाइन में खड़े रहकर कंट्रोल की शक्कर लेकर घर जाते हैं। पर थैली में ज़रा-सा छेद हो, तो रास्ते में शक्कर गिरती जाती है और चींटियों का भला हो जाता है। वह अनजाने का पुण्य। उसका फल अनजाने में भुगता जाएगा। पुण्य और पाप, पाप और पुण्य, उसके अनुबंध में ही प्रत्येक मनुष्य भटका करता है। इसलिए कभी भी उनसे मुक्ति नहीं मिलती। बहुत पुण्य करे, तब बहुत हुआ, तो देवगति मिलती है, पर मोक्ष तो मिलता ही नहीं। मोक्ष तो, ज्ञानी पुरुष मिलें, और आपके अनंत काल के पापों को जलाकर भस्म करके आपके हाथों में शुद्धात्मा रख दें, तब होता है। तब तक तो चार गतियों में भटकते ही रहना है। आत्मा के ऊपर ऐसी परतें हैं, आवरण हैं कि एक मनुष्य को अंधेरी घुप्प कोठरी में बंद करके, उसे केवल दो वक्त का खाना दें, तब उसे जो दुःख का अनुभव होता है, ऐसे अपार दुःखो का अनुभव ये पेड़पौधे आदि एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक के जीवों को होता है। इन पाँच इन्द्रियवाले मनुष्यों को इतना दुःख है, तो जिनकी कम इन्द्रियाँ हैं उन्हें कितना दु:ख होगा? पाँच से ज्यादा छठी इन्द्रियोंवाला कोई नहीं है। ये पैड़-पौधे और जानवरों की तिर्यंचगति है। वह सख़्त कैद की सजा है। मनुष्यगति में सामान्य कैदवाले और नर्कगति में तो भयंकर दुःख, उसका यथातथ्य वर्णन करूँ, तो सुनते ही मनुष्य मर जाए। चावल को उबालें, तब उछलते हैं, उससे लाख गुना अधिक दु:ख होता है। एक जन्म में पाँच-पाँच बार मृत्यु वेदना और फिर भी मृत्यु नहीं होती। उनके अंगअंग विच्छेद होते और फिर जुड़ जाते हैं। वेदना भोगनी ही पड़ती है। नर्कगति यानी उम्रकैद की सजा। देवताओं को नजरकैद जैसा है, पर उन्हें भी मोक्ष तो नहीं होता। आप किसी की शादी में गए हों, तो आप सब भूल जाते हैं। मोह में पूर्णरूप से तन्मय हो जाते हैं। आइसक्रीम खाएँ, तब जीभ खाने में लगी होती है। बैन्ड बजता है, तब कानों को प्रिय लगता है। आँखें दुल्हेराजा की राह देखती हैं। नाक, अगरबत्ती और इत्र की गंध में जाती है। पाँचों इन्द्रियाँ व्यस्त होती हैं। मन झमेले में होता है। यह सब हो, वहाँ आत्मा की याद नहीं आती। देवलोक में सदा ऐसा ही माहौल होता है। इससे भी अनेक गुना, अधिक सुख होता है। इसलिए वे भान में ही नहीं होते। उन्हें आत्मा का लक्ष्य ही नहीं होता। पर देवगति में भी कुढन, बेकरारी और ईर्ष्या होते हैं। देवता भी फिर इतने सुखों से ऊब जाते हैं। वह कैसे? शादी में चार दिनों तक लड्डू रोज आएँ, तो पाँचवे दिन खिचड़ी की याद आती है, वैसा है। उन लोगों की भी इच्छा होती है कि कब मनुष्य देह मिले और भरतक्षेत्र में अच्छे परिवार में जन्म हो और ज्ञानी पुरुष की भेंट हो जाए। ज्ञानी पुरुष के मिलने पर ही हल निकलनेवाला है, वर्ना चतुर्गति की भटकन तो है ही। संकल्प-विकल्प विकल्प यानी 'मैं' और संकल्प यानी 'मेरा'। 'मैं चंदूलाल' यह विकल्प, सबसे बड़ा विकल्प और 'यह मेरी बीवी, ये मेरे बच्चे और यह मेरा बंगला, मोटर आदि,' वह सब संकल्प।
SR No.009575
Book TitleAptavani 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherMahavideh Foundation
Publication Year2009
Total Pages141
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Akram Vigyan
File Size42 KB
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