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________________ आप्तवाणी - १ ५९ त्रिगुणात्मक प्रकृति ब्रह्मा, विष्णु और महेश, वे तीन गुणों के अधिपति देवता हैं। सत्त्व, रजस् और तमस्। तमस् गुणवाले, महादेव को भजते है। सत्त्व गुणवाले, ब्रह्मा को भजते है और रजस् गुणवाले, विष्णु को भजते है। जो जिसे भजे, उसे वह गुण प्राप्त होते हैं। इन्डिया में रजसगुणवाले अधिक होते. हैं, पर संसार तमस् गुण में पड़ा है। ये तीनों ही गुणों के देवता हैं। वे जन्में नहीं हैं, रूपक रखे हैं। वेद भी इन तीन गुणों से मुक्त होकर, तू पुरुष बन, ऐसा कहते हैं। यह तो प्रकृति नाच नचाती है, तब यह मूर्ख कहता है कि मैं नाचा! लट्टू घूम रहा है, उसमें उसका क्या पुरुषार्थ ? लाख कमाए तब कहता है कि मैंने कमाया, फिर घाटा होने पर ऐसा क्यो नहीं कहता कि मैंने घाटा किया? तब तो सारा दोष भगवान पर उँडेल देता है, कहेगा भगवान ने घाटा किया। भगवान बेचारे का कोई बाप नहीं, कोई तरफदारी करनेवाला नहीं, इसलिए ये लोग भगवान पर गलत आरोप लगाते हैं। यह तो प्रकृति जबरन करवाती है, और कहता है कि मैं करता हूँ । दान करना, जप-तप, धर्मध्यान, दया, अहिंसा, सत्य आदि सभी प्राकृत गुण हैं। अच्छी आदतें और बुरी आदतें भी प्राकृत गुण हैं। प्राकृत चाहे कैसा भी स्वरूपवान क्यों नहीं हो, पर कब भेष बनाए या फ़जीहत करवाए, कह नहीं सकते। एक राजा हो, बड़ा धर्मनिष्ठ और दानेश्वरी हो पर जंगल में भटक गया हो और चार दिनों तक खाना नसीब नहीं हुआ हो, तो जंगल में भील के पास से माँगकर खाने में उसे शरम आएगी? नहीं । तब कहाँ गई उसकी दानशीलता? कहाँ गई उसकी राजस्विता ? अंदर से प्रकृति चिल्लाकर माँगती है, अतः संयोगों के शिकंजे में आता है, उस समय राजा भी भिखारी बन जाता है। वहाँ फिर औरों की तो बिसात ही क्या? यह तो प्रकृति दान करवाती है और प्रकृति भीख मँगवाती है, उसमें तेरा क्या? एक चोर बीस रुपयों की चोरी करता है और होटल में चाय-नाश्ता करके मजे लूटता है। पर जाते-जाते दस रुपये का नोट कोढ़ी को दे देता है, यह क्या है? यह ६० आप्तवाणी - १ तो प्रकृति की माया है। समझ में आए ऐसी नहीं है। कोई कहेगा कि आज मैंने चार सामयिक किए और प्रतिक्रमण किया और दो घंटे शास्त्र पढ़े। यह भी प्रकृति करवाती है और तू कहता है कि मैंने किया । यदि तू ही सामयिक का कर्त्ता है, तो दूसरे दिन भी करके दिखा न? दूसरे दिन तो कहेगा कि आज तो मुझसे नहीं होता ! ऐसा क्यों बोलता है? और कल जो बोला था, मैंने किया, इन दोनों में कितना बड़ा विरोधाभास है? यदि तू ही करनेवाला हो, तो 'नहीं होता', ऐसा कभी भी बोल ही नहीं सकता। नहीं होता, इसका मतलब यही कि तू करनेवाला नहीं है । सारा संसार ऐसी उलटी समझ के कारण अटका हुआ है। त्याग करता है, वह भी प्रकृति ही करवाती है और ग्रहण करता है, वह भी प्रकृति करवाती है। यह ब्रह्मचर्य का भी प्रकृति जबरन पालन करवाती है, फिर भी कहता है कि मैं ब्रह्मचर्य का पालन करता हूँ। कितना बड़ा विरोधाभास ! ये राग-द्वेष, दया- निर्दयता, लोभ-उदारता, सत्य-असत्य सारे द्वंद्व गुण हैं। वे प्रकृति के गुण हैं और खुद द्वंदातीत है। आत्मा, सगुण-निर्गुण कितने ही लोग भगवान को निर्गुण कहते हैं। अरे! भगवान को गाली क्यों देते हैं? पागल को भी निर्गुणी कहते हैं। पागल निर्गुणी किस तरह है? पागलपन तो एक गुण हुआ, फिर वह निर्गुण कैसे है? इसका अर्थ, आत्मा को निर्गुण कहकर, पागल से भी खराब दिखाते हैं, जड़ समान दिखाते है? अरे, जड़ भी नहीं और निर्गुण भी नहीं है। उसके भी गुण हैं। आत्मा को, भगवान को निर्गुण कहकर तो लोग उल्टी राह चल पड़े हैं। यहाँ मेरे पास आ, तो तुझे सच्ची समझ दूँ । 'आत्मा प्रकृति के गुणों की तुलना में निर्गुण है, परन्तु स्वगुणों से भरपूर है।' आत्मा के अपने तो अनंत गुण हैं। अनंत ज्ञानवाला, अनंत दर्शनवाला, अनंत शक्तिवाला, अनंत सुख का धाम, परमानंदी है। उसे निर्गुण कैसे कह सकते हैं? उसे यदि निर्गुण कहेगा, तो कभी भी आत्मा प्राप्त नहीं होगा। क्योंकि, आत्मा
SR No.009575
Book TitleAptavani 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherMahavideh Foundation
Publication Year2009
Total Pages141
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Akram Vigyan
File Size42 KB
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