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________________ आप्तवाणी-१ २३७ २३८ आप्तवाणी-१ आत्मा बिलकुल निराला है। संयोगों को हर तरह से देख सके, जान सके ऐसा है, पर संयोगों में एकाकार हो जाओ और उनसे शादी कर बैठो, तो क्या हो सकता है। सारे ही संयोग पौद्गलिक हैं, अनात्मा के हैं। गधा मिले, तो पौद्गलिक नहीं कहलाता क्योंकि अंदर अनात्मा और आत्मा का संयोग साथ मिला हुआ है। वास्तव में उसमें आत्मा एकाकार नहीं हुआ है, पर भ्रांति से आपको ऐसा दिखाई दे, तो वह भयंकर भूल है। सभी संयोग ऑटोमेटिक ही आ मिलते हैं और ज्ञान भी उससे ऑटोमेटिक विभाविक हुआ है। बाकी, द्रव्य नहीं बदला, गुण नहीं बदले, मात्र पर्याय बदले हैं। दर्शन-ज्ञान पर्याय विभाविक हो गए हैं। एक लेबोरेटरी में बैठा साइन्टिस्ट प्रयोग के सारे साधन लेकर बैठा हो और प्रयोग करते समय कहीं अचानक किसी एकाध साधन में से गैस लीक हो जाए और उस आदमी का दम घुटने लगे और बेहोश हो जाए, तब वह सबकुछ भूल जाता है, संपूर्ण रूप से भान गवाँ देता है। पर बाद में जैसे-जैसे होश में आता जाता है, वैसे-वैसे उसका प्रकाश बढ़ता है और उसे और अधिक समझ में आता जाता है। शुरू में ऐसा समझता है कि सब मेरे ही हाथों में है। मेरी ही सत्ता में है। फिर जैसे-जैसे भान आता है वैसे-वैसे समझ में आता है कि यह तो भगवान की सत्ता में है, मेरे हाथ में नहीं। जब और अधिक भान में आता है, तब ऐसा लगता है कि यह सब तो भ्रांति स्वरूप है। भगवान की सत्ता में भी नहीं और अंत में जब संपूर्ण भान में आए, तब संयोग ही कर्ता हैं, ऐसा भान होता है और तभी उसे संयोगों से मुक्ति का सुख बरतता है। ऐसे समझ में ही परिवर्तन होता रहता है। प्रयोगकर्ता यदि संयोगों में संयोगी हो जाए, एकाकार हो जाए, तो वह भयंकर अभानावस्था कहलाती है। और जब संयोग अलग और 'मैं' अलग, ऐसा भान हो जाए तब मुक्ति का आस्वाद मिलता है। बीज पड़ते हैं। फिर हल कैसे आए? उनके ज्ञाता-दृष्टा रह सकें, तो फिर नये बीज नहीं पड़ते। अनंत संयोग हैं, पर वे सभी उगने लायक नहीं रहे उसका अर्थ मोक्ष। प्रत्येक मनुष्य संयोगो से बंधा है। हमारे महात्मा संयोगों से घिरे हैं और वे संयोग मात्र के ज्ञाता-दृष्टा हैं। संयोगों में फँसा, बंधा, तो शक्ति कुंठित हो जाती है। जब कि ज्ञानी को संयोग आते और जाते है, परंतु ज्ञानी उनसे हाथ मिलाने नहीं ठहरते। हम तो दूर से ही देख लेते हैं, इसलिए संयोगों का वियोग हो जाता है। आत्मा स्व-पर प्रकाशक होने से, उसमें संयोग केवल झलकते ही हैं। मात्र, प्रकाश प्राप्त हो चुका होना चाहिए। संयोग होता है, वह चेतन नहीं है। असंयोगी ही 'हमारा' द्रव्य है। किसी के लिए अच्छे भाव हों या खराब भाव हों, वे मात्र संयोग ही हैं, वे हमारे नहीं होते। संयोग सदा नहीं रहते। जो आएँ और जाएँ वह स्वरूप नहीं होता। जो हमारा स्वरूप नहीं हो, उसे हमारा कैसे मानें? वे तो हमारे पड़ोसी आते हैं और जाते हैं, वैसे ही ये संयोग हैं। नासमझ तो, खुद को विचार आते हैं, उसमें यदि अच्छे विचार आएँ, किसी का भला करने का विचार आया, तो उसे आत्मा कहता है, पर वह आत्मा नहीं होता। आपको चाहे कैसा भी भाव होता है, पर वह 'मेरा नहीं है' इतना ही जानने की ज़रूरत है। स्वामित्वभाव किसी भी संयोग के लिए नहीं होना चाहिए। चाहे वह शुभ विचार हो या अशुभ विचार हो। हम स्पष्ट शब्दों में संसार को बता देते हैं, जैसा है वैसा कि स्थूल संयोग, सूक्ष्म संयोग, वाणी के संयोग पर हैं और पराधीन है। आत्मा और संयोग दो ही हैं। कार्य-अकार्य संयोगाधीन हैं, पराधीन हैं, स्वाधीन नहीं हैं। स्वाधीन होते, तो अप्रिय संयोगों को कोई पास भी फटकने नहीं देता और प्रिय संयोगों का कोई वियोग ही होने नहीं देता, फिर तो कोई मोक्ष में ही नहीं जा सकता था। अनेकों संयोग खड़े होते हैं। उनमें फिर तन्मयाकार हों, तो नये
SR No.009575
Book TitleAptavani 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherMahavideh Foundation
Publication Year2009
Total Pages141
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Akram Vigyan
File Size42 KB
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