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________________ आप्तवाणी-१ २३९ २४० आप्तवाणी-१ जो कुछ टेम्परेरी है, संयोग-वियोग है, वह 'मेरा' नहीं ऐसा जो जाने, वह 'ज्ञान'। सारे ही पर्यायों का शुद्ध होना, अनंत ज्ञान कहलाता है। सूक्ष्म संयोग तो उस ज्ञान के शुद्ध पर्याय उत्पन्न हों, तब ही झलकते हैं और जिसके सभी पर्याय शुद्ध हो जाएँ, वह अनंतज्ञानी ! परमात्मा स्वरूप! 'संयोग ही कर्ता हैं' ऐसा, यदि ज्ञान न हो, फिर भी अहंकार से भी मानें, तो बहुत बड़ा पुण्य बंधता हैं। उच्च श्रेणी के देवता बनते हैं। यह तो, कुछ करें और उलटा हो, तो कहते हैं कि संयोगाधीन करना पड़ा और वही उलटा किया हुआ यदि फेवर में जाए, तो कहते हैं कि वह तो ऐसा ही करने योग्य था। बस, इतना बोले कि हस्ताक्षर हो गए और जिम्मेदारी आ गई। हमारे महात्माओं की तो रोंग बिलीफ़ उड़ गई है। उनके सभी संयोग वही के वही, प्रकृति वही की वही, ससुर-जमाई, बीवी-बच्चे आदि सब वही के वही, फिर भी कैसा गजब का सुख बरतता है उन्हें! संयोग, जिसका कि वियोग होनेवाला है उससे डरना क्या? कर लेना। दो हाथों से थोड़े ही खाया जाता है? शांति से भोजन करना मतलब, चित्त उस समय कोर्ट में नहीं जाना चाहिए। पहले शांति से भोजन करना और फिर आराम से कोर्ट जाना। लोग क्या करते हैं कि प्राप्त संयोग को भोग ही नहीं सकते और अप्राप्त के पीछे अधीर होकर पड़ जाते हैं। अत: दोनों को गँवा देते हैं। मुए, भोजन प्राप्त हुआ है, सुमेल सहित उसे भोग, तभी निपटारा होगा। कोर्ट तो अभी दूर है, अप्राप्त है, उसके पीछे क्यों पड़ा है? संयोगानुसार काम निपटा लेना। ज्ञानी पुरुष का संयोग मिले, तब काम न निकाल लें, तो बात पूरी हो गई न? फिर कोई आशा ही नहीं रही न? ऐसी सच्ची और सरल समझदारीवाली बात कौन बताता है? यह तो आत्मानुभवी का ही काम है। सारे जगत के तमाम जीवों के लिए यह 'ज्ञानी-पुरुष', एक उत्तम निमित्त का संयोग है। 'वैसे भवि सहज गुण होवे, उत्तम निमित्त संयोगी रे।' अल्प काल में मोक्ष जानेवालों को सहज ही उत्तम निमित्त आ मिलता है। मोक्ष अति सुलभ है, पर मोक्षदाता का संयोग होना अति अति दुर्लभ है। उसकी दुर्लभता अवर्णनीय है। जीव सभी योनियों में भटक-भटक कर आया है, कहीं भी सच्चा सुख नहीं मिला। वहाँ अहंकार की गर्जनाएँ और विलाप ही किया है। छूटने की इच्छा है, मगर मार्ग मिलता नहीं है। मार्ग मिलना अति अति दुर्लभ है। यह 'ज्ञानी पुरुष' का संयोग आ मिलना ही मुश्किल है। सभी संयोग जमा होकर बिखर जानेवाले हैं, पर ज्ञानी पुरुष के संयोग से 'सदा की ठंडक' प्राप्त होती है। अब तो काम निकाल लेना है, ज्ञानी पुरुष के पास पड़े रहना है, ऐसी भावना से पराक्रम खड़ा होता है। फिर चाहे कैसे भी संयोग आएँ, फिर भी पराक्रम से पार उतर सकते हैं। प्राकृत संयोग यह आपको जो कुछ मिलता है, वह आपकी प्रकृति के हिसाब से ही मिलता है। प्रकृति के अनुसार ही हर चीज़ मिल जाती है। 'हमारे' तो बुढ़ापा नहीं, मरण नहीं, जन्म नहीं, केवल संयोग आते और जाते हैं। ज्ञानी पुरुष के तो मरण और भोजन दोनों संयोग जैसे ही होते हैं। केवल संयोग ही होते हैं। प्राप्त संयोगों के अलावा संसार में कोई वस्तु नहीं है। प्राप्त संयोगों' का सुमेल सहित समता भाव से निपटारा करो।' यह गज़ब का वाक्य निकला है। इस एक ही वाक्य में जगत् के तमाम शास्त्रों का ज्ञान सार रूप से समा गया है। प्राप्त संयोगों के हम ज्ञाता-दृष्टा हैं, अप्राप्त के नहीं। ग्यारह बजे कोर्ट में जाना हो और ग्यारह बजे भोजन की थाली आई, तो उस समय वह संयोग प्राप्त हुआ ऐसा कहलाता है। उसे पहले सुमेल रखते हुए समभाव से निपटाना पड़ेगा। इसलिए शांति से भोजन
SR No.009575
Book TitleAptavani 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherMahavideh Foundation
Publication Year2009
Total Pages141
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Akram Vigyan
File Size42 KB
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