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________________ आप्तवाणी-१ २३५ २३६ आप्तवाणी-१ शुद्ध संयोग मिलें तब ही मोक्ष होता है। ज्ञानी पुरुष का सत्संग ही एकमात्र शुद्ध संयोग है। क्योंकि ज्ञानी पुरुष के लिए क्या लिखा गया कुसंयोग को लोग ऐसा कहते हैं कि इसकी बुद्धि बिगड़ी है। सिपाही आकर पकड़ ले जाए, वह कुसंयोग और सत्संग में जाने को मिले, वह सुसंयोग। इस जगत् में संयोग यानी पूरण और वियोग यानी कि गलन, इसके सिवा और कुछ है ही नहीं। वियोग करना जितना मुश्किल है, उतना ही मुश्किल संयोग करना 'शुद्धात्मा मूळ उपादानी, अहं ममतना अपादानी। मूळ निमित्त शुद्ध संयोगी, छोड़ाव्यो भव संसारे, वंदु कृपाळु ज्ञानी ने...' शुद्धात्मा मूल उपादानी, अहम् ममत के अपादानी। मूल निमित्त शुद्ध संयोगी, छुड़वाया भव संसार से, वंदन कृपालु ज्ञानी को... ज्ञानी पुरुष ही एक ऐसा संयोग है, मूल निमित्त है कि जो 'शुद्धात्मा' का उपादान करवाते हैं और अहंकार और ममता का. 'मैं' और 'मेरा' का अपादान करवाते हैं। दूसरे शब्दों में 'शुद्धात्मा' ग्रहण करवाते हैं और अहंकार और ममता का त्याग करवाते हैं। इसलिए उन्हें 'मूल निमित्त' और मोक्ष प्राप्ति के एकमात्र 'शुद्ध संयोगी' कहा गया ___ स्वाद हमेशा संयोग आने से पहले आता है। जब तक जमाराशि होती है, तब तक स्वाद आता है। जब से जमाराशि खर्च होना शुरू होती है, तब से स्वाद कम होता जाता है। यात्रा रविवार को जानेवाली है, इस समय सभी को अनूठा स्वाद आता है, पर रविवार साढ़े सात बजे जब गाडी चलेगी, तब से जमा राशि खर्च होने लगेगी और फिर खतम हो जाएगी। संयोग जब से आता है, तब से ही वह वियोग की ओर जाने लगता है और वियोग आता है, तब से संयोग का आना शुरू हो जाता है। एक का एविडन्स आ मिले, उसका वियोग होने पर दूसरे के एविडन्स मिलना शुरू हो जाते हैं। ___संसार में संयोग, सार निकालने के लिए हैं। एक्सपिरियेन्स (अनुभव) करने के लिए हैं। पर लोग कोने में घुस गए हैं। शादी करके खोजते हैं कि सुख किस में है? बीवी में है? बच्चे में है? ससर में है? सास में है? किस में सुख है? इसका सार निकालो न? लोगों को द्वेष होता है, तिरस्कार होता है, पर सार नहीं निकालते। इस संसार के सभी संबंध जो हैं, वे रिलेटिव संबंध हैं, रियल नहीं हैं। केवल सार निकालने के लिए रिश्ते हैं। सार निकालनेवाले मनुष्यों के राग-द्वेष कम हो जाते हैं और वे मोक्ष के मार्ग के खोजी बनते हैं। मनुष्यदेह के अलावा और कोई ऐसी देह नहीं है. कि जो मोक्ष की अधिकारी हो। मनुष्यदेह मिले और मोक्ष के संयोग मिलें, साधन मिलें, तो काम हो जाए। जब कि आत्मा और संयोगों का तो ज्ञाता-ज्ञेय का संबंध है। आत्मा को तो सबसे संयोग संबध मात्र ही है। 'शुद्धात्मा' खुद असंयोगी है और उसके अलावा, सभी संयोग संबंध है। संयोग-वियोग तो ज्ञेय हैं और 'तू खद' ज्ञाता है, पर ज्ञाता ज्ञेयाकार हो जाता है. इसलिए तो अनंत जन्मों से भटका है। पाँच करण से जो दिखता है, अनुभव में आता हैं, वे स्थूल संयोग और अंत:करण के सूक्ष्म संयोग और वाणी के संयोग, उन सारे संयोगों के साथ आत्मा का मात्र 'संयोग संबंध' है, सगाई (रिश्ते का) संबंध नहीं है। ज्ञाता-ज्ञेय का, 'संयोग संबंध' मात्र है। यदि ज्ञाता-ज्ञेय के 'संयोग संबंध' मात्र में ही रहें, तो वह अबंध ही है। जब कि लोग तो संयोगों के साथ 'शादी संबंध' की कल्पना कर बैठे, इससे ऐसा फँसाव खड़ा हुआ कि बाहर निकल ही नहीं सके न!
SR No.009575
Book TitleAptavani 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherMahavideh Foundation
Publication Year2009
Total Pages141
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Akram Vigyan
File Size42 KB
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