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________________ अहिंसा इसलिए यह पानी गरम करना वह हिंसा के कारण नहीं कहा है, वह शारीरिक तंदुरुस्ती के लिए कहा है। पानी गरम करने से जलकाय जीव खत्म हो जाते हैं। पर इसके पाप के लिए नहीं कहा है। आपके शरीर को बहुत अच्छा रहे, पेट में जीवाणु न उत्पन्न हों और ज्ञान को आवरण न करें, इसलिए कहा है। पानी गरम करें, तब बड़े जंतु होते हैं, वे सभी मर जाते हैं। प्रश्नकर्ता : तो वह हिंसा हुई न? दादाश्री : उस हिंसा का हर्ज नहीं है। क्योंकि शरीर तंदुरुस्त हो तो आप धर्म कर सकते हैं। और वैसे तो सारी हिंसा ही है, इस जगत् के अंदर केवल हिंसा ही है। हिंसा के बाहर एक अक्षर भी नहीं है। खाते हो, पीते हो, वे सब जीव ही हैं। अब भगवान ने तो एकेन्द्रिय जीव के लिए ऐसा झंझट करने का कहा ही नहीं। यह तो सब उल्टा समझ लिया है। एकेन्द्रिय जीव के लिए ऐसा कहा होता न, तो 'ठंडा पानी ही पीना. नहीं तो पानी उबालने से सब जीव मर जाएँगे' ऐसा कहते। पानी गरम करने में कितने जीव मारे? प्रश्नकर्ता : अनेक। दादाश्री : उसमें जीव दिखते नहीं है। पर वह पानी है न वे अपकाय जीव हैं। उनकी काया ही पानी है। उनका शरीर ही पानी है। बोलो अब, तब अंदर जीव कहाँ बैठे होंगे? लोगों को वे किस तरह मिलें? यह तो शरीर दिखता है उन सब जीवों के शरीर इकट्ठे करें, वही पानी है, पानीरूपी जिनका शरीर हैं, वैसे जीव हैं। अब इसका पार कहाँ आए? हरी सब्जी में समझा उल्टा प्रश्नकर्ता : बरसात में हरी सब्जी नहीं खानी चाहिए ऐसा कहते हैं, वह किसलिए? दादाश्री : हरी सब्जी में लोग उल्टा समझे हैं। हरी सब्जी यानी अहिंसा वह जीव की हिंसा नहीं है। हरी सब्जी पर सूक्ष्म जीव बैठते हैं और वे जीव पेट में जाएँ तो रोग होता है। शरीर को नुकसान करते हैं, इसलिए फिर धर्म नहीं हो पाता। इसके लिए भगवान ने मना किया है। हम क्या कहना चाहते हैं कि ऐसा उल्टा क्या समझे? जो (दवाई) चुपड़ने की थी वह सारी पी गए और पीने को कहा था वह चुपड़ते रहते हैं, इसलिए रोग कम होता दिखता नहीं है। एन्टीबायोटिक्स से होनेवाली हिंसा प्रश्नकर्ता : बुख़ार आया, फुसी हुई-पक गया, फिर ये भीतर जीवाणुओं को मार डालने की दवाई देते हैं.... दादाश्री : इतनी जीवाणु की चिंता करनी नहीं है। प्रश्नकर्ता : पेट में कृमि हुए हों और उसे दवाई नहीं दें, तो वह बच्चा मर जाएगा। दादाश्री : उसे दवाई ऐसी पिला कि अंदर कृमि कोई रहे ही नहीं, वह करना ही है। प्रश्नकर्ता : अब आत्मसाधना के लिए शरीर को अच्छा रखना है। अब उसे अच्छा रखने में यदि जीवों की हानि हो, तो वह करना चाहिए या नहीं करना चाहिए? दादाश्री: ऐसा है न, आत्मसाधना किसका नाम कहलाता है? कि आपको शरीर का ध्यान रखना है, ऐसा यदि आप भाव करने जाओगे तो साधना कम हो जाएगी। यदि पूरी साधना करनी हो तो शरीर का आपको ध्यान नहीं रखना है। शरीर तो उसका सब लेकर ही आया है। सब ही प्रकार की सँभाल लेकर आया हुआ है। और आपको उसमें कोई गडबड करने की ज़रूरत नहीं है। आप आत्मसाधना में पूरी तरह लग जाओ, हंड्रेड परसेन्ट। और यह दूसरा सब कम्पलीट है। इसलिए मैं कहता हूँ न, कि भूतकाल बीत गया, भविष्यकाल 'व्यवस्थित' के ताबे में है, इसलिए वर्तमान में बरतो।
SR No.009573
Book TitleAhimsa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherMahavideh Foundation
Publication Year2010
Total Pages59
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Sermon
File Size36 KB
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