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________________ [ 42 ] तेज मन्द पड़ गया । रमणियाँ प्रियतमों का आलिंगन कर पयोधरस्थ अपनी उष्णता को सार्थक करने लगीं । इस प्रकार पुष्पों के भार से वृक्षों को नीचे झुकाने वाली एवं भ्रमरों के गुंजार को कभी भी बन्द न करने वाली समस्त ऋतुओं को प्रत्येक शिखरों पर धारण करने वाले इस रैवतक पर्वत पर भगवान् श्रीकृष्ण क्रीड़ा करने के लिए मयूरों की वाणी द्वारा प्रेरित किये गये । सप्तम सर्ग ( यदुदम्पत्तियों का विलासपूर्ण वन विहार वर्णन ) तदनन्तर भगवान् श्रीकृष्ण रैवतक पर्वत के प्रत्येक शिखर पर वसन्तादि ऋतुओं द्वारा विस्तारित वन्य श्री की शोभा देखने के लिए शिविर से बाहर निकले । तत्पश्चात् गौर वर्ण की यदुवंशी सुन्दरियाँ अपने पति के साथ पैदल ही वन-श्री को देखने के लिए विविध प्रकार के कामजन्य विलासों को करती हुई जाने लगीं । यादवगण भी विविध प्रकार के कामकला का प्रदर्शन करते हुए उनकी विलासपूर्ण क्रीडाओं को बढ़ा रहे थे । नदियों के तीर पर शब्द करते हुए सारस पक्षियों का कलरव कामधनुष के टङ्कार सदृश कामिजनों को प्रतीत हो रहा था । गुञ्जार करते हुए भ्रमर-गण रमणियों के साथ यादवों को मानों दूर से ही बुला रहे थे । आधी खिली हुई कलियाँ वायु के स्पर्श एवं भ्रमरों के बैठने से पूर्णत: विकसित होकर सुन्दरियों का कामोद्दीपन कर रही थीं । कोई नायिका शीघ्रगामी नायक से कह रही थी 'हे मित्र ! इस प्रकार जल्दी जल्दी पैर रखते हुए मत चलो । पीछे-पीछे आती हुई मेरी भी प्रतीक्षा करते जाओ । एक दूसरी कोई नायिका अपने प्रियतम के दोनों कन्धों पर अपने दोनों हाथों को रखकर अपने कठोर कुचों के अग्रभाग से उसे प्रेरित अथवा निपीडित करती हुई लीलापूर्वक उसके पीछे-पीछे जा रही थी । कोई खण्डिता नायिका अपने प्रियतम को फटकार रही थी । किसी रमणी के नेत्र में पड़ा हुआ पुष्पराज मुख- वायु करते हुए नायक को देखकर उसकी सपत्नी के नेत्र क्रोध से लाल हो थे । और तो सपत्नी का नामोच्चारण पूर्वक बुलायी गयी कोई सुन्दरी कामप्रयुक्त अभिचार मन्त्र से आहत होकर मूर्च्छित भी हो रही थी । कोई नायिका अपने प्रियतम को बलपवूक पकड़कर एकान्त में ला जा रही थी । भ्रमर - वृन्द, युवतियों द्वारा सब फूल चुन लिये जाने के कारण कोमल मालाओं को धारण करने वाली युवतियों के ऊपर बैठ रहे थे । इस प्रकार दीर्घकाल तक वन विहार करने के कारण श्रान्त - क्लान्त रमणियों के खुले हुए केशजालों के भार से मानों उनके कन्धे नीचे की ओर झुक गये थे, सघन एवं लम्बी पलकों के भार से मानों उनके नेत्र बन्द से हो रहे थे, जिससे उनके मुखार विन्द अधिक शोभा दे रहे थे, प्रेमी के विशेष चुंबन के मर्दन के कारण लगी हुई केशर की धूल रमणियों के कपोलों पर से छूट गयी थीं । उनके कपोलमण्डल सूर्य की किरणों से अधिक लाल हो रहे थे । परिश्रम के कारण उनके बाहु शिथिल पड़ गये, स्तन मण्डल पसीने से शिथिल हो गया था, बहुत देर तक धरती तल पर पैदल चलने के कारण उनके चरण कमलों में लगा हुआ नूतन आलता का रंग छूट गया क्या, से दूर -
SR No.009569
Book TitleShishupal vadha Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajanan Shastri Musalgavkar
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages231
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size63 MB
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