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________________ [ 22 ] इसके अतिरिक्त आलोच्य काव्य के प्रथम सर्ग के ४६ श्लोक का ९वें सर्ग के १४ वें श्लोक का भाव क्रमश: अग्निपुराण-व-भविष्य पुराण में मिलता है । आदान माघ पर पूर्ववर्ती कवियों का प्रभाव - पूर्ववर्ती कवियों – कालिदास, भारवि तथा भट्टि की कविता का प्रभाव माघ के कई वर्णनों पर दिखाई पड़ने के कारण विद्वानों ने माघ पर पूर्व कवियों की नकल करने का दोष लगाया है. किन्तु हमारे विचार में यह दोषारोपण न्याय संगत नहीं है । वस्तुतः साहित्य के विकास में 'आदान-प्रदान' प्रक्रिया का महत्त्वपूर्ण योगदान रहता है । यह एक गतिशील जीवंत प्रक्रिया है । उसमें पूर्ववर्ती से आधार रूप में उसे जो कुछ मिलता है, उस पर खड़े होकर ही वह आगे के लिए अपना कदम उठाता है । इसी तथ्य को नीतिवाक्य में इस प्रकार व्यक्त किया गया है - 'चलत्येकेन पादेन तिष्ठत्येकेन बुद्धिमान्' - बुद्धिमान् व्यक्ति एक पैर से खड़ा रहता है और दूसरे से चलता है । यह केवल व्यक्ति सत्य नहीं है, साहित्यिक सन्दर्भ में भी यही शाश्वत सत्य है । खड़े पैर का आधार पूर्ववर्ती उपजीव्य साहित्य होता है । इसी उपजीव्य-परंपरागत साहित्य की भूमि पर कवि का पैर खड़ा रहता है । यही उसका आदान' है और चलता पैर है - 'प्रदान' जो उत्तरवर्ती साहित्य पर उसकी छाया अर्थात् उसकी कृति का प्रभाव होता है । हम अन्यत्र बता चुके है कि कवि को व्युत्पन्न होने के लिये लोक, शास्त्र तथा पूर्ववर्ती काव्य का अभ्यास करना नितान्त आवश्यक होता है । इन्हीं से कवि को काव्य करने की प्रेरणा मिलती है । अपनी काव्य-रचना की प्रारम्भिक अवस्था में कवि पूर्ववर्ती कवियों की कृतियों का अध्ययन करता ही है । बाद में ज्ञात या अज्ञात रूप से उसकी अपनी रचना में उनका प्रभाव कुछ न कुछ अवश्य दिखाई पड़ता है । यही है उपजीव्य-उपजीवक भाव । इसे हम 'हेय' कहकर तिरस्कृत नहीं कर सकते । क्योंकि “कोई भी श्रेष्ठ से श्रेष्ठ कवि आसमान में नहीं पैदा होता है । सबकी जड़ परम्परा अतीत में गहराई तक गयी हुई है । सुन्दर से सुन्दर फूल यह दावा नहीं कर सकता कि वह पेड़ से भिन्न होने के कारण उससे एकदम असंपृक्त है । कोई भी पेड़ यह दावा नहीं कर सकता कि वह मिट्टी से भिन्न होने के कारण एकदम अलग है । इसी प्रकार कोई भी कवि यह दावा नहीं कर सकता कि वह परम्परा से “पूर्ववर्ती साहित्य से एकदम कटा हुआ है । कार्य-कारण के रूप में, आधार-आधेय के रूप में परम्परा की पूर्ववर्ती कवियों के दाय की-एक अविच्छेद्य श्रृंखला अतीत में गहराई तक, बहुत गहराई तक गयी हुई है ।" यह तो रही परम्परा या पूर्ववर्ती कवियों के दाय की बात, जिसके अनुसार प्रत्येक कवि की कृति में पूर्ववर्ती काव्य-वर्णनों की छाया सहजगत्या ढूंढी जा सकती है ।
SR No.009569
Book TitleShishupal vadha Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajanan Shastri Musalgavkar
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages231
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size63 MB
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