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________________ द्वितीयः सर्ग हिन्दी अनुवाद-रतिकाल से भिन्न अवसर पर स्त्रियों की लज्जा के समान, पराभव न होने पर पुरुषों के लिए क्षमा भाव रखना भूषण है ।। ४४॥ (अर्थात् लज्जा स्त्रियों के लिये सुरत काल में जैसे दूषण है और सुरतातिरिक्त काल में भूपण है, उसी तरह पुरुषों के लिये क्षमा पराभव के समय दूपण है और तदतिरिक्त समय में भूपण है)॥ ४५ ॥ प्रसङ्ग-बलरामजी पराभव होने पर भी क्षमा करने की प्रवृत्ति की तीन श्लोकों में (४५-४७) निन्दा करते हैं । क्योंकि इस अवसर पर क्षमा श्रीहत हो जाती है। अथ परिभवेऽप्यपराक्रमे त्रिभिनिन्दामाह मा जीवन् यः परावहादुःखदग्धोऽपि जीवति । तस्याऽजननिरेवास्तु जननीक्लेशकारिणः ॥ ४५॥ मा जीवनिति ॥ यः परस्यापकत्रज्ञया अवमानेन यद् दुःखं तेन दग्धस्तसोऽत एव मा जीवन् गहितजीवी सन् । 'माझ्याक्रोशे' इति लटः शत्रादेशः। जीवति प्राणान्धारयति । जनन्याः क्लेशकारिणो गर्भधारणप्रसवादिवेदनाकारिणः। तद्व्यतिरिक्तार्थक्रियाहीनस्येत्यर्थः। तस्या अजननमजननिरनुत्पत्तिरेवास्तु । जननीक्लेशनिवृत्त्यर्थमिति भावः । 'आक्रोशे नभ्यनिः' ( ३।३।११३ ) इति नपूर्वाजनिधातोरनिप्रत्ययः ॥ ४५ ॥ अन्वयः-यः परावज्ञादुःखदग्धः मा जीवन् "सन्" अपि जीवति, जननी क्लेशकारिणः तस्य अजननिः एव अस्तु ॥ ४५ ॥ हिन्दी अनुवाद--वलरामजी कहते हैं कि जो मनुष्य शत्रुकृत अपमानजन्य दुःख से जलता हुआ भी निन्दित जीवन व्यतीत करते हुए जीता है, माता को क्लेश देने वाले ऐसे (मनुष्य ) का जन्म ही न हो ॥ (अर्थात् माता को वृथा प्रसव की पीड़ा देने वाले ऐसे मनुष्य का उत्पन्न न होना ही श्रेष्ठ है।)।॥ ४५ ॥ विशेष-ऐसे पुरुष की निन्दा पं० नारायण ने भी हितोपदेश ग्रन्थ में की है दाने तपसि शौर्ये च यस्य न प्रथितं मनः । विद्यायामर्थलाभे वा मातुरुच्चार एव सः ॥ (मित्रलाभः श्लोक-१६) प्रसङ्ग-बलरामजी अपमानित होकर भी क्षमा करने की प्रवृत्ति की निन्दा करते हुए कहते हैं कि पादाहतं यदुत्थाय मूर्धानमधिरोहति । स्वस्थादेवापमानेऽपि देहिनस्तद्वरं रजः ॥ ४६॥ पादेति ॥ यद्रजो धूलिः पादेनाहतं सदुत्यायोड्दीय मूर्धानमाहन्तुरेव शिरोऽ:
SR No.009569
Book TitleShishupal vadha Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajanan Shastri Musalgavkar
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages231
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size63 MB
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