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________________ प्रथमः सर्गः कलासमग्रेणेति ॥ कलाभिः षोडशांशः शिल्पविद्याभिश्च समग्रेण सम्पूर्णेन । 'काले शिल्पे वित्तवृद्धौ चन्द्रांशे कलने कला' इति वैजयन्ती। गृहानमुञ्चता सदा तगृहेष्वेव वसता। दण्डभयात्सेवाधर्मत्वाच्चेति भावः। मनस्विनीर्मानिनीरुत्का उत्सुकाः कर्तुम् उत्कयितुम् । 'उत्क उन्मनाः' (शरा० ) इति निपातनादुत्कशब्दात 'तत्करोति -' इति ण्यन्तात्तुमुन् । पटीयसा । मानभेदचतुरेणेत्यर्थः। कुतः-रति वितन्वता चन्द्रिक्राभिश्चतुरोक्तिभिश्च रागं वर्धयता इन्दुना विलासिनो विलसनशीलस्य । 'वो कषलस-' (३।२।१४३) इत्यादिना घिनुण्प्रत्ययः । तस्य रावणस्य नमसाचिव्यं क्रीडासम्बन्ध्यधिकारित्वे सचेष्टत्वम् । 'लीला क्रीडा च नर्म च' इत्यमरः। नाकारीति न । किन्त्वकार्यवेत्यर्थः । अनौचित्यात्प्राप्सनर्मसाचिव्यनिषेधनिवारणा नद्वयम् । 'सम्भाव्यनिषेधनिवर्तने नदयम्' (१६) इति घामनः । अनेन्दोः प्रकृतस्याप्रकृतेन नर्मसचिवेन श्लेषः ॥ ५६ ।। अन्धयः-इलासम्प्रेण गृहान् अमुशता मनस्विनीः उस्कयितुं पटीयसा रतिं वितन्त्रता इन्दुना विलासिनः तस्य नर्मसाचिव्यं न अकारि (इति ) न ॥ ५९॥ हिन्दी अनुवाद-सम्पूर्ण कलाओं से (सोलह कलाओं से) घरों को न छोड़ते हुए (रावण के प्रासादों में सदा रहते हुए, अर्थात् उन्हें सदा प्रकाशित करते हुए) मानिनियों को उस्कष्ठिर करने में अत्यन्त चतुर तथा विलासी रावण के अनुराग को बढ़ाते हुए चन्द्रमा ने उसके नर्मसचिव का कार्य नहीं किया, ऐसी बात नहीं, अर्थात् अवश्य किया ।। ५९ ।। विशेष-(प्राचीनकाल में राजाओं के यहाँ सम्पूर्णकलाओं का ज्ञासा एक नर्मसचिव रहता था। जिसका कार्य राजा की विलासिता में कामोद्दीपक वचनों (6) से तथा क्रियाकलापों से हाथ बँटाना, तथा मानिनियों का मानभंग करना रहता था। चंद्रमा भी सम्पूर्णकलाओं में निष्णात तथा विलासी रावण की रति वधक क्रीडाओं में सहायक था । अतः यहाँ उसे रावण का नर्मसचिव कहा गया है।) (२) जहाँ दो नत्र का प्रयोग-न अकारि इति न किया जाता है, वहाँ निषेधार्थक अर्थ न होकर सकारात्मक अर्थ होता है। जैसा कि आचार्य वामन ने कहा है 'संभाव्यनिषेधनिवर्तने नम्दयम् ।' प्रसङ्ग-प्रस्तुत श्लोक में रावण कृत गणेश जी के दन्तोरपाटन का वर्णन किया गया है। विदग्धलीलोचितदन्तपत्रिकाचिकीर्षया नूनमनेन मानिना॥ न जातु घेनायकमेकमुद्धृतं विषाणमद्यापि पुनः प्ररोहति ॥ ६॥ १. विधित्सया।
SR No.009569
Book TitleShishupal vadha Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajanan Shastri Musalgavkar
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages231
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size63 MB
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