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________________ [9] उक्त वक्तव्य से ऐसा प्रतीत होता है कि दरिद्रता से धैर्यहीन हो जाने के कारण अत्यन्त कातर हुए माघ की यह उक्ति है । कविवर माघ १२० वर्ष की पूर्ण आयु प्राप्त करके सन् ८८० ई० के आसपास दिवंगत हुए । साथ ही इनकी पत्नी सती हो गई । इनकी अन्तिम क्रिया तक करने वाला कोई व्यक्ति इनके परिवार में नहीं था । भोजप्रबन्ध, प्रबन्धचिन्तामणि तथा प्रभावकचरित के अनुसार माघ भोज की जीवितावस्था में ही दिवंगत हुए, क्योंकि भोज ने ही माघ का दाह संस्कार पुत्रवत् किया था । प्राप्त प्रमाणों के आधार पर माघ के जीवन की यही घटना ज्ञात होती है । इतना तो स्पष्ट है कि माघ का जन्म कुल–परम्परा के अनुसार एक प्रतिष्ठित धनाढ्य ब्राह्मण कुल में हुआ था । जीवन के सुख की समग्र सामग्री इनके पास थी । पिता से इन्होंने शिक्षा प्राप्त की थी । पिता के समान ही ये दानी, दयालु तथा उपकारी थे । इनका सम्बन्ध किसी 'भोज' नाम या उपाधिधारी राजा विशेष से अवश्य था । किन्तु धारा-नरेश भोज से कदापि नहीं, क्योंकि धारा नरेश-भोज का समय ईसा की ग्यारहवीं शती (१०१०-५०ई० ) है । इसलिए माघ धारा-नरेश भोज के समसामयिक कदापि नहीं हो सकते । __इतिहास देखने पर ज्ञात होता है कि भारतवर्ष में कम से कम दो-तीन भोजनामधारी राजा अवश्य थे । माघ के समय निर्धारण में अन्य प्रमाण भी मिलते हैं, जिनकी सहायता से हम उनका समय जान सकते हैं । नवीं शती के आनन्द वर्धन ( ८५० ई० ) ने अपने ध्वन्यालोक ( २ उद्योत ) में माघ के दो पद्यों को उद्धृत किया है । प्रथम पद्य है - 'रम्या इतिप्राप्तवती: पताका:' ( ३.। ५३ ) तथा द्वितीय है - त्रासाकुल' परिपतन् परितो निकेतान् । (५। २६ ) इस प्रकार माघ निःसन्देह आनन्द वर्धन ( ८५० ई० ) के पूर्ववर्ती हैं । आनन्दवर्धन द्वारा माघ के श्लोक उद्धृत किये जाने के कारण माघ आनन्दवर्धन के पूर्ववर्ती ही हो सकते हैं या समकालीन भी हो सकते हैं, क्योंकि यशोलिप्सा के कारण माघ स्थिर रूप में किसी एक स्थान पर न रह पाये हों । उन्होंने निश्चित रूप से उत्तर भारत में काश्मीर तक भ्रमण किया था, जिसका प्रमाण काव्य के प्रथमसर्ग का नारदमुनि की जटाओं का वर्णन है । यहीं पर सम्भव है, ध्वन्यालोक में उद्धृत श्लोकों को किसी काव्यगोष्ठी में श्री आनन्दवर्धन ने माघ के मुख से सुने हों और वे उत्तम होने के कारण आनन्दवर्धन ने ध्वन्यालोक में उन्हें उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया हो । एक शिलालेख से भी माघ के समय-निर्धारण में सहायता मिलती है । राजा वर्मलात का शिलालेख वसन्तगढ़ ( सिरोही राज्य में ) से प्राप्त हुआ है । यह शिलालेख शक संवत् ६८२ का है । शक संवत् ६८२ में ७८ वर्ष जब जोड़ दिये जाते हैं तब ईस्वी सन् का ज्ञान होता है । इस प्रकार यह शिलालेख सन् ७६० ई० का लिखा हुआ होना चाहिए । माघ ने २० वें सर्ग के अन्त में -'कविवंशवर्णनम' में लिखा है कि उसके
SR No.009569
Book TitleShishupal vadha Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajanan Shastri Musalgavkar
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages231
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size63 MB
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