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________________ शिशुपालवधम् यदुक्तं योगिनामपि त्वमेव साक्षात्करणीय इति, तदेव द्रढयति उदीर्णेति ॥ उदीर्ण उद्रिक्तो रागो विषयाभिलाषः स एव प्रतिरोधकः प्रतिबन्धकः पाटच्चरश्व यस्मिन् । 'प्रतिरोधिपरास्कन्दिपाटच्चरमलिम्लुचाः' इत्यमरः। अभीक्षणमक्षुणतयाऽनभ्यस्तत्वेनाप्रतिहतत्वेन च जनैरतिदुर्गमं मोक्षपथमवर्गमार्ग कान्तारं चोपेयुषः प्राप्तवतः। 'उपेयिवान्'-इत्यादिना क्वस्वन्तो निपातः। मनस्विनः सुमनसः धीरस्य च । प्रशंसायां विनिः । त्वमेव निरपायः पुनरावृत्तिरहितः संश्रयः प्राप्तिर्यस्याः सा तथोक्ता । 'न स पुनरावर्तते' इति (छां. ८।१५।१) श्रुतेः । अग्रभूमिः प्राप्यस्थानम् । 'अग्रमालम्बने प्राप्ये' इति विश्वः। 'सोऽहम्' इत्यादिश्रुतेस्तत्प्राप्तेरेवमोक्षत्वादिति भावः । तस्मान्मुमुक्षूणामपि त्वमेव साक्षात्करणीय इति सिद्धम् । 'तमेव विदित्वाऽतिमृत्युमेति नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय' इति श्रुतेः । यथा कस्यचित्कुतश्चित्सङ्कटान्निर्गतस्य केनचिकान्तारेण गतस्य किश्चिन्निधिस्थान प्राप्तिरभयाय कल्पते, तथा त्वमपि मुमुक्षोरिति ध्वनिः ॥ ३२ ॥ __ अन्वयः--उदीर्णरागप्रतिरोधकम् अभीयम् अक्षुण्णतया जनैः अति दुर्गम मोक्ष पथम् उपेयुषः मनस्विनः त्वं निरपायसंश्रया अग्रभूमिः ( असि)॥ ३२॥ हिन्दी अनुवाद--वढा हुआ (सांसारिक विषयों के प्रति) अभिलाष (आसक्ति) ही जिसमें अवरोधक है, अभ्यस्त न होने के कारण जनसाधारण के लिए अत्यन्त दुर्गर मोक्ष-मार्ग को प्राप्त हुए मनस्वी पुरुष के लिए पुनरावृत्ति रहित आप ही प्राप्य स्थान हैं ॥ ३२ ॥ ___पक्षान्तर में—जिसमें सांसारिक विषयों के प्रति बढ़ा हुआ अनुराग ही चोरलुटेरे हैं, तथा जो यातायात से रहित होने के कारण अत्यन्त दुर्गम है, ऐसे निर्जन वनादि को पहुँचे हुए धीर पुरुष के लिए पुनः जहाँ से लौटना नहीं पड़ता, वह गन्तव्य स्थान आप ही है ॥ ३२ । विशेष--इस श्लोक में निर्गुण ब्रह्म का प्रतिपादन किया गया है। नारद मुनि श्रुति के इस वचन "तमेव विदित्वाऽतिमृत्युमेति नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय" के शब्दों को अपने शब्दों में कहते हैं कि आपको (श्रीकृष्ण भगवान् ) ही प्राप्त करना मोक्ष है। योगियों को भी-'कृष्णस्तु भगवान् स्वयम्' ( कृष्ण का ही) आपका साक्षात्कार करना अभीष्ट है। इसीलिए मैं यहाँ आया हूँ। मल्लिनाथ ने अपनी 'सर्वकषा' में लिखा है कि जिस प्रकार कोई पुरुष किसी संकट से निकलकर किसी निर्जन-गहन वन से यात्रा करता हुआ किसी निर्वाध-शान्त-स्थान को अभय के लिए पहुँचने का प्रयत्न करता है, उसी प्रकार सांसारिक विषयवासनादि कण्टकाकीर्ण तथा आवागमनादि से रहित-और अनभ्यस्त होने के कारण अत्यन्त दुर्गम मोक्ष मार्ग को पहुंचे हुए मुमुक्षु-जनों के आप ही प्राप्य हैं ।
SR No.009569
Book TitleShishupal vadha Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajanan Shastri Musalgavkar
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages231
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size63 MB
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