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________________ २८ नैषधमहाकाव्यम् पूर्वोक्त श्लोक की भांति मल्लिनाथ ने यहां भी वाक्यार्थहेतुक काव्यलिंग अलंकार माना है, साहित्यविद्याधरीकार ने क्रिया का प्रतिषेध होने पर भी फल में उसकी व्यक्कि रहने के आधार पर यहां विभावना स्वीकारी है‘क्रियायाः प्रतिषेधेऽपि फले व्यक्तिविभावना ।' जो मुख श्रीजयी है, उसे दरिद्रता कैसी ? पर वह है, भले ही उपमान की दरिद्रता हो ॥२४॥ स्वबालभारस्य तदुत्तमाङ्गजैस्स्वयञ्चमर्येव तुलाभिलाषिणः ! अनागसे शंसति बालचापलं पुनः पुनः पुच्छविलोलनच्छलात् ।। २५ ॥ जीवातु--स्वबालेति। चमरी मृगीविशेषः तस्य नलस्य उत्तमाङ्गजः शिरोरुहः समं सहैव तुलाभिलापिणः सादृश्यकाङ्क्षिणः स्वबालभारस्य निजलोमनिचयस्य अनागसे अनपराघाय नीचस्य उत्तमैः सह साम्याभिगमोऽपि महान् अपराध इति भावः । क्वचित्तदभावे नसमासे दृश्यते । पुनः पुनः पुच्छस्य लाङ्गलस्य विलोलनं विचालनम् एव छलं तस्मात् बालचापलं रोमचाञ्चल्यम् अथ च शिशुचापल्यं शंसति कथयति बालचापल्यं सोढव्यमिति घियेति भावः । अत्र पुच्छविलोलनप्रतिषेधेन अन्यस्य बालचापलस्य स्थापनादपह नुतिरलङ्कारः। तदुक्तं दर्पणे-'प्रकृतं प्रतिषिध्यान्यस्थापनं स्यादपह नुतिरि'ति ॥ २५ ॥ अन्वया-'चमरी तदुतमाङ्गः समं तुलाभिलाषिणः स्वबालभारस्य अनागसे पुनः पुनः पुच्छविलोलनच्छलात् बालचापलं शंसति । हिन्दो-सुरा गाय उस ( नल ) के सिर के केशों के साथ साम्य के अभिलाषी अपने केशों के निरपराध होने पर बारम्बार पुंछ हिलाने के व्याज से ( स्वकेशों की ) बालकोचित चपलता को व्यक्त किया करती है। टिप्पणी--इस श्लोक में कवि ने नल के केश-सौन्दर्य का वर्णन किया है। चमरी गाय के बाल उसके केशों से समता की धृष्टता करते हैं, यह अपराध है, किन्तु शरीर सम्बन्ध से नील गाय केशों-बालों की माता तुल्य है। माता को बच्चे के अपराध अपराध नहीं लगा करता, और फिर बच्चों का अपराध उनका बालचापल्य ही माना जाता है। कवि कहता है कि सुरागाय इसी बालचापल्य की अभिव्यक्ति कर रही है निरन्तर पूंछ हिलाती, अथवा अपने बालों ( बाल 'वबयोरभेदः' ) की चपलता के निमित्त क्षमा चाह रही है।
SR No.009566
Book TitleNaishadhiya Charitam
Original Sutra AuthorHarsh Mahakavi
AuthorSanadhya Shastri
PublisherKrishnadas Academy Varanasi
Publication Year
Total Pages284
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size74 MB
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