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________________ १२ नैषधमहाकाव्यम् भावः । अङ्कतां कलकत्वं दधाति । अत्रापि व्यञ्जकाप्रयोगात् गम्योत्प्रेक्षा तथा च कलकत्वं दधातीवेत्यर्थः ॥ ८॥ ___अन्वप:-अस्य यात्रासु बलोद्धतं स्फुरत्यतापानलघूममजिम यत् रजः तत् एव गत्वा सुधाम्बुधौ पतितं पङ्कीमवत् विधौ अङ्कतां दधाति । हिन्दी-इस ( नल ) की ( विजयार्थ ) यात्राओं में सेना के द्वारा उड़ायी गयी स्फुरित होते प्रताप-रूप अग्नि के धूमसम मनोहारिणी जो धूल थी, वही जाकर क्षीरसागर में गिरी और कीचड़ बनकर चन्द्रमा में कृष्णचिह्न हो गयो । टिप्पगी--प्रथम सात श्लोक में नल के महिमान का वर्णन करके श्रीहर्ष अब सात ही श्लोकों में उसके प्रताप का वर्णन कर रहे हैं। दिग्विजयेषिणी नल को सेना जब चलती थी तो उससे प्रचुर धूल उड़ती थी, जो स्वाभाविक है। क्षीर सागर के जल से मिलकर उसके कीचड़ होकर चन्द्रकलंक बन जाने की सम्भावना से सेना-बाहुल्य और समुद्र-पर्यन्त उसकी गति द्योतित है । 'प्रकाश'कार ने यहां लुप्तोत्प्रेक्षा मानी है और 'जीवातु'-कार ने व्यंजक का प्रयोग न होने के कारण गम्योत्प्रेक्षा। 'साहित्य विद्याधरी'कार अतिशयोक्ति मानते हैं । 'प्रतापानलघूम' से औपम्य में रूपक है । ___'तिलक'-व्याख्या में बताया गया है, यह प्रश्न उठाकर कि कीचड़ बनी धूलि का चन्द्र-कलङ्क होना क्या वस्तुगति द्वारा सूचित होता है अथवा उसकी उत्प्रेक्षा होती है ? दोनों ही सम्भव नहीं है। पहला इस कारण सम्भव नहीं क्योंकि पुराणादि में ऐसी कोई कवि-प्रसिद्धि नहीं है। उत्प्रेक्षा इसलिए नहीं हो सकती क्योंकि 'इव' आदि द्योतक पद का अभाव है। वस्तुतः 'तदेव' में जो 'एव' है, वह प्रसिद्ध पक्षांतर के अस्वीकारार्थ या निषेधार्थ है, जिससे यह द्योतित होता है कि चन्द्र कलंक प्रसिद्ध मृग, शशक आदि नहीं है, नल-सैन्य द्वारा उद्धत धूलि ही है। स्फुरद्धनुनिस्वनतद्घनाशुगप्रगल्भवृष्टिव्ययितस्य सङ्गरे । निजस्य तेजश्शिखिनः परश्शता वितेनुरङ्गारमिवायशः परे ॥ ९ ॥ जीवातु-स्फुरदिति । सङ्गरे युद्धे शतात् परे परश्शताः शताधिका इत्यर्थः, बहव इति यावत्, पञ्चमोति योगविमागात् समासः, राजदन्तादित्वादुपसर्जनस्य
SR No.009566
Book TitleNaishadhiya Charitam
Original Sutra AuthorHarsh Mahakavi
AuthorSanadhya Shastri
PublisherKrishnadas Academy Varanasi
Publication Year
Total Pages284
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size74 MB
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