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________________ द्वितीयः सर्गः हिन्दी-इस ( दमयन्ती-उपवन के दर्शन ) के उपरांत स्वर्णपंखी ( हंस) ने वहाँ ( वाटिका में ) समान कांतिमती सखियों की सभामध्य विशेष रूपसे दीपती, तारों की परिषद् में मध्य स्थिता (नेतृत्त्व करती) शीतकिरण (चन्द्र) की कला के अनुकरण में समर्थ शोभान्विता (दमयंती) को नेत्रगोचर किया। टिप्पणी--वाटिका में अनुपम रूपवती सखियों के मध्य विराजती दमयंती सुवर्णपक्षी को ऐसी प्रतीत हुई, जैसी कि तारिकाओं के मध्य चन्द्रकला । दमयंती की सखियाँ भी उसी जैसी नहीं, तो उसी के समान सौंदर्यशालिनी थीं, दमयंती तो अनुपम सुन्दरी थी कि विचित्र पक्षी, सोने के पंखवाले राजहंस के नेत्र भी उसे देखते ही रह गये । उपमालङ्कार ॥ १०७॥ भ्रमणरयविकोणस्वर्णभासा खगेन क्वचन पतनयोग्यं देशमन्विष्यताऽधः । मुखविधुमदसीयं सेवितुं लम्बमानः शशिपरिधिरिवोच्चैर्मण्डलस्तेन तेने ॥१०८॥ जीवातु-भ्रमणेति । अघो भूतले क्वचन कुत्रचित्पतनयोग्यं देशं स्थानम् अन्विष्यता गवेषमाणेन अत एव भ्रमण रयेण विकीर्णा स्वर्णस्य मा दीप्तिर्यस्य तेन खगेन अमुष्या अयम् अदसीयम् 'वृद्धाच्छः' 'त्यदादीनि चेति वृद्धिसंज्ञा । मुखेन्दु से वितुं लम्बमानः स्रसमानः शशिपरिधिः चन्द्रपरिवेष इव उच्चरुपरि मण्डलो वलयः तेने वितेने तनोतेः कर्मणि लिट् । उत्प्रेक्षास्वभावोक्त्योः सङ्करः ॥ १.८॥ अन्वयः-अधः क्वचन पतनयोग्यं देशम् अन्विष्यता भ्रमणरय विकीर्णस्वर्णभासा तेन खगेन अदसीयं मुखविधु सेवितु लम्बमानः शशिपरिधिः इव उच्चैः मण्डलः तेने। हिन्दी--नीचे ( धरती पर ) कहीं उतरने योग्य स्थान को खोजते परिभ्रमण के वेग से सुवर्णदीप्ति विकीर्ण करते हुए उस पक्षी ( हंस ) ने जैसे उस ( दमयंती ) के मुख चन्द्र के सेवन के मिमित्त लटकते चन्द्रपरिवेष के समान ऊपर मंडल लिया ( गोल चक्कर लगाया )।
SR No.009566
Book TitleNaishadhiya Charitam
Original Sutra AuthorHarsh Mahakavi
AuthorSanadhya Shastri
PublisherKrishnadas Academy Varanasi
Publication Year
Total Pages284
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size74 MB
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