SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 28
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( २८ ) का हंस-दूत द्वारा दमयन्ती के पास सन्देश-प्रेषण और उत्तर-प्राप्ति, दमयन्ती स्वयंवर, इन्द्रादि देवों की उसमें उत्सुकता, नल-दमयन्ती-विवाह, कलि का क्रोध, कलि द्वारा प्रवृत्त पुष्कर से नल की चूत में पराजय और वनवास, दमयन्ती त्याग और विरूप नल का अयोध्या में राजसारथि होकर वास, नल की दमयन्ती के दूतों द्वारा खोज और समाचार-प्राप्ति, पुनः स्वयंवर में अयोध्या नरेश के साथ आये नल की पहिचान और पुनः दमयन्ती-प्राप्ति तथा पुष्कर से ५ राज्य का पुनः पा लेना-'नलोपाख्यान' है। श्रीहर्ष ने केवल इस उपाख्यान के प्रथम छः अध्यायों की कथा को ही अपने महाकाव्य का आधार बनाया है और अपने कवित्व का विशिष्ट परिचय दिया है। कुछ परिवर्तन-परिवर्द्धन के साथ यही 'वृत्त' 'कथासरित्सागर' में भी है। ___ महाभारत की कथा में भो श्रोहर्ष ने अपनी कल्पनाशक्ति से अनेक परि. वर्तन-परिवर्द्धन किये हैं और उसे चारुतर बनाया है। संक्षेप में उनमें से कुछ इस प्रकार हैं (१) 'नलोपाख्यान' के प्रथम अध्याय की कथा 'नैषध' के प्रथम तीन सर्गों में है । इस परिवद्धन के साथ उसमें कुछ वर्णन-भेद भी है । 'नलोपाख्यान' में नल को हंस जिस उद्यान में मिला, वह एक सामान्य उद्यान है, 'नषष' में वणित वह विशिष्ट उद्यान है, जहां पकड़े हंस को करुणाद्रवित नल ने मुक्त कर दिया और प्रत्युपकारी हंस ने नल का दूतकर्म स्वेच्छया स्वीकारा । 'नलोपाख्यान' में हंस की मुक्ति तब होती है, जब वह दूतकर्म का वचन दे देता है । 'नलोपाख्यान' में अनेक हंस दमयन्ती के पास पहुंचे हैं, 'नैषध' में एक ही। ( २ ) 'नलोपाख्यान' में दमयन्ती की सखियों से उसकी अस्वस्थ दशा का समाचार पाकर विदर्भनरेश स्वयंवर का प्रबन्ध कराते हैं, 'नषध' में समुत्थित 'विपुल कलकल' को जान कर राजा भीम पुत्री के पास पहुंचते हैं और लज्जावनता, विरहिणी दमयन्ती को देखकर स्वयंवर की घोषणा करते हैं। (३ ) देवों का दूतकार्य 'नलोपाख्यान' में नल ने पूर्व विश्रुत होकर किया है, प्रतिज्ञा-भंग-दोष से बचने के लिए; बब कि 'नषष' में देव-यापकों को
SR No.009566
Book TitleNaishadhiya Charitam
Original Sutra AuthorHarsh Mahakavi
AuthorSanadhya Shastri
PublisherKrishnadas Academy Varanasi
Publication Year
Total Pages284
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size74 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy