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________________ द्वितीयः सर्गः के प्रतीक ), उनके ऊपर के खंड ( क्षिति के प्रतीक ), उनके ऊपर ( आकाश के प्रतीक ), जिनमें क्रमशः इन तीनों के प्रतीकस्वरूप संपत्ति, धान्यादि और चंदनादि-भोग सामग्री रहती थी, जिससे प्रतीत होता था कि नगरी के आवास त्रिलोकी के सारभूत तत्त्वों से निर्मित हैं। इस प्रकार वह नगरी तीन लोक से न्यारी लगती थी। मल्लिनाथ के अनुसार यथासंख्य, विद्याधर के अनुसार यथासंख्य और उदात्त तथा चंद्र कलाकार के अनुसार व्यतिरेक अलंकार ।। ८१ ॥ दधदम्बुदनीलकण्ठतां वहदत्यच्छसुधोज्ज्वलं वपुः । कथमृच्छतु यत्र नाम न क्षितिभृन्मन्दिरमिन्दुमौलिताम् ।। ८२ ।। जीवात--दधदिति । यत्र नगर्यामम्बुदैरम्बुदवन्नीलः कण्ठः शिखरोपकण्ठः गजश्च यस्य तस्य भावस्तत्तां 'कण्ठो गले सन्निधान' इति विश्वः । दघत् अच्छया सुधया लेपनद्रव्येण च सुधावदमृतवच्चोज्ज्वलं वपुर्वहत् 'सुधा लेपोऽमृतं सुधे'त्यमरः । क्षितिभृन्मन्दिर राजभवन मिन्दुमौलिता मिन्दुमण्डलपर्यन्तशिखरत्वं कथं नाम न ऋच्छतु ? गच्छत्वेवेत्यर्थः । राजभवनस्य तागौनत्यं युक्तमिति भावः । अन्यत्र नीलकण्ठस्य इन्दुमौलित्वमीश्वरत्वं च युक्तमिति भावः । अत्र विशेषणविशेष्याणां श्लिष्टानामभिधायाः प्रकृतार्थमात्रनियन्त्रणात् प्रकृतेश्वरप्रतीतेः ध्वनिरेव ॥ ८२ ॥ अन्वयः--यत्र अम्बुदनीलकण्ठतां दधत् अत्यच्छसुधोज्ज्वलं वपुः वहत् क्षितिभृन्मन्दिरम् इन्दुमौलितां कथं नाम न ऋच्छतु ? हिन्दी-जिस ( नगरी ) में घिरे बादलों के कारण ऊपरी भाग और चूना-पोता होने के कारण अत्यन्त स्वच्छ सफेद शरीर ( आवास-स्थल ) धारण करता धरणीधर ( राजा ) का महल मेघश्यामकंठ वाले और निर्मल चांदनी ( अथवा अमृत ) के समान शुभ्र देहधारी चंद्रमौलि ( शिव ) के भाव को ( मौलि अर्थात् शिखर पर चंद्रमा को ) क्यों न प्राप्त करे ? ( करे ही ) ॥ टिप्पणी--राजमहल बहुत ऊंचा है, जिससे घिरे बादलों के कारण उसका ऊपरी भाग नीला दीखा करता है और ऐसा लगता है कि चंद्रमा जैसे उसके ५ नं० द्वि०
SR No.009566
Book TitleNaishadhiya Charitam
Original Sutra AuthorHarsh Mahakavi
AuthorSanadhya Shastri
PublisherKrishnadas Academy Varanasi
Publication Year
Total Pages284
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size74 MB
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