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________________ ( २५ ) श्रीहर्ष अतिथिदेव, गृहस्थ, अयाचितव्रती और कृतज्ञ सत्सुरुष थे। कहने पर नहीं, करने पर उनकी आस्था थी। सज्जनों को उपयोगिता उनके क्रियाफल से प्रमाणित होती है, कथन से नहीं-'ब्रुवते हि फलेन साघवो न तु कण्ठेन निजोपयोगिताम् ।' (नं० २।९८), गुणों की प्रशंसा न करना उनके अनुसार वाणी को निष्फलता थी-'वाग्जन्यवंफल्यमसह्य शल्यं गुणाधिके वस्तुनि मोनिता चेत् ।' ( नै० ८।३२ )। धर्म उनके लिए कट्टरपना नहीं, जीवनयापन की एक क्रिया थी, आवश्यकता होने पर जिसे शिथिल किया जा सकता था। उनका धर्माचरण जड़ नहीं था, गतिशील था--'निषिद्धमप्याचरणीयमापदि क्रिया सती नावति यत्र सर्वया ।' (ले० ९।३६ ) यो सामान्यतः वे चाहते यही थे कि कृच्छ्र से कृच्छ दशा में भी धर्म से चित्त स्खलित न हो'कृच्छं गतस्यापि दशाविपाकं धर्मान्न चेतः स्खलतु ।' (ले० १४।८१ ) । ऐपा मनस्वी, महापंडित, रसिकशिरोमणि, कलासर्वज्ञ अन्त में एक दुरभिमानिनी नारी के हाथों अवमानना न सह सका और अपनी अभीष्ट जीवन-यापन-पद्धति को अपनाकर गंगातीरवासी हो गया तो इसमें अचरज नहीं होना चाहिए। जीवन-यापन के लिए उसे और अपेक्षित ही क्या था ? फल मूल, गंगा का निर्मल सलिल–'फलेन मूलेन च वारिभूरुहां मुनेरिवेत्थं मम यस्य वृत्तयः ।' (नै० १११३३ )। ये राजहंस के ही वचन नहीं, कवि श्रीहर्ष का अभीप्सित जीवन-विलास था, जो समाधि में परब्रह्मप्रमोदार्णव का साक्षात् करता था-'यः साक्षात्कुरुते समाधिषु परब्रह्मप्रमोदार्णवम् ।' __ श्रीहर्ष को कृतियाँ 'प्रबन्धकोष' में राजशेखर की मान्यता को यदि प्रमाण माना जाय तो श्रीहर्ष शताधिक ग्रन्थों के रचयिता ठहरते हैं। इस समय श्रीहर्ष के केवल दो ग्रन्थ प्राप्त होते हैं--(१) नैषधीयचरित, (२) खण्डनखण्डखाद्य । 'नैषधीयचरित' कुछ सर्गों के अन्तिम परिचय-श्लोकों में श्रीहर्ष ने स्वयम् अपनी कृतियों के नाम दिये हैं। ये इस प्रकार हैं :--(१) स्थैर्यविचार ( चतुर्थ सर्ग ), (२) विजयप्रशस्ति ( पंचम सर्ग), (३) खण्डनखण्डखाद्य (पष्ठ सर्ग ), ( ४ ) गौडोर्वीशकुलप्रशस्ति ( सप्तम सर्ग ), ( ५ ) अर्णववर्णन ( नवम सर्ग)
SR No.009566
Book TitleNaishadhiya Charitam
Original Sutra AuthorHarsh Mahakavi
AuthorSanadhya Shastri
PublisherKrishnadas Academy Varanasi
Publication Year
Total Pages284
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size74 MB
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